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________________ बिहार-बंगाल-उड़ोसाके दिगम्बर जैन तीर्थ २१९ खारबेल द्वारा निर्मित जिनालय इसमें सन्देह नहीं है कि 'श्रीक्षेत्र परिचय'के अनुसार जगन्नाथपुरोका वर्तमान मन्दिर मूलतः खारबेल द्वारा निर्मित वही जिनालय है। किन्तु प्रश्न यह है कि 'कलिंगजिन' की वह मूर्ति कहाँ गयी तथा 'कलिंगजिन'का मन्दिर जगन्नाथजीका मन्दिर कैसे बन गया ? प्रथम प्रश्नका उत्तर जगन्नाथजीके कलेवर-परिवर्तनकी रहस्यमय विधिमें मिल जायेगा। दारुविग्रहमें जो छोटी-सी मूर्ति रखी जाती है, वही 'कलिंगजिन'की रत्नमूर्ति है, ऐसा हमारा विश्वास है। जहाँ तक दसरे प्रश्नका सम्बन्ध है, विश्वासपूर्वक यह कह सकना कठिन है कि 'कलिंगजिन' कब जगन्नाथजी बन गये और उनका जिनालय कब जगन्नाथजीका मन्दिर बन गया। ऐसा लगता है, जब आद्य शंकराचार्यने चारों दिशाओंमें चार धामोंकी स्थापना की थी, उसी समय ये परिवर्तन हुए। जिस कलिंगमें सुदीर्घ काल तक जैन धर्म राष्ट्र धर्मके रूपमें पल्लवित हुआ, आज उसका एक भी प्राचीन मन्दिर अवशिष्ट नहीं है। इसका तर्कसंगत एक ही कारण हो सकता है कि कलिंगमें जैनोंकी संख्या और प्रभावमें हास होनेपर वे सभी जैन मन्दिर परिवर्तित कर दिये गये हों। जगन्नाथजीका मन्दिर इसी परिवर्तन-शृंखलाकी एक कड़ी रहा है। नारदीय पंचरात्र, सूतसंहिता और नीलाद्रि अर्चनचन्द्रिका आदि जिनग्रन्थोंके अनुसार जगन्नाथपुरीके मन्दिरमें चौंसठ उपचारोंके साथ पूजा, नैवेद्य आदि कार्य सम्पन्न हुआ करते हैं, वे सभी ग्रन्थ इस कालके बादके हैं। .... मूलतः यह जैन मन्दिर है, इस विश्वासके अन्य भी कई कारण हैं । जैसे-पुरी मन्दिरके दक्षिण द्वारपर ऋषभदेव तीर्थंकरकी मूर्तिका होना और वहाँ इस परम्परागत अनुश्रुतिका होना कि इस मन्दिरका निर्माण खारबेल महाराजने कराया था और वे जैन थे, हमारी इस धारणाका समर्थन करते हैं कि मूलतः यह वही मन्दिर है, जिसका निर्माण खारबेलने 'कलिंगजिन' मूर्तिके लिए कराया था। केशरी वंश अथवा गंग वंशके राजाओंने उसीका पुनरुद्धार अथवा पुनर्निर्माण कराया था। अभिधान राजेन्द्र कोष (चतुर्थ खण्ड १३८५) में ऋषभदेवका एक नाम जगन्नाथ भी माना है। आचार्य जिनसेन कृत महापुराणके जिनसहस्रनाम स्तोत्रमें भी जगन्नाथ शब्द ऋषभदेवका नामान्तर माना है। इस समन्वय दृष्टिसे विचार करते हैं तो जगन्नाथ और ऋषभदेवकी अनेक बातोंमें समानता दृष्टिगोचर होती है । जगन्नाथजीका नीलचक्र ऋषभदेवके धर्मचक्रका ही प्रतीक है। जगन्नाथ मन्दिरका वटवृक्ष ऋषभदेवके बोधि-वृक्षको सूचित करता है। यह बोधि-वृक्ष अक्षय वट कहलाता है। विमलादेवी सचमुच ही ऋषभदेवकी पुत्री ब्राह्मी ( सरस्वती ) से अभिन्न हैं। जगन्ननाथजीका अभिषेक जैन मूर्तियोंके अभिषेकके समान होता है । जान्नाथ मन्दिरके बेड़ामें कोहली वैकुण्ठ नामक स्थान है। कोहली शब्द संस्कृतके कैवल्य शब्दसे निष्पन्न हुआ है जो जैनोंका पारिभाषिक शब्द है। पुरीमें आषाढ़ शुक्ला दो को रथयात्राका उत्सव होता है। हिन्दू परम्परामें वार, नक्षत्रका विचार किये बिना शुभ कार्यका अनुष्ठान वजित बताया है। किन्तु आषाढ़ शुक्ला दोको बार नक्षत्रका विचार किये बिना सब तरहके शुभ कार्य किये जाते हैं। इसलिए हिन्दू परम्परामें इसे कल्याणक दिवस माना गया है। वास्तवमें यह कल्याणक दिवस तो है ही। ऋषभदेव भगवान्के पाँच कल्याणक मनाये जाते हैं-गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण । ये ही पाँच कल्याणक प्रत्येक तीर्थंकरके होते हैं। जिन तिथियों में ये कल्याणक होते हैं वे कल्याणक दिवस कहलाते
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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