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________________ २२० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हैं। ऋषभदेवका गर्भ-कल्याणक इसी तिथिको हुआ था। यहाँ एक बात विशेष रूपसे उल्लेखनीय है कि पुरीको रथयात्रा श्री कृष्णजी को घोषयात्रा नहीं है। घोषयात्रामें फिर बाडड़ा ( लौटना) नहीं होता। जगन्नाथजीमें अन्य वैष्णव तीर्थोंसे कई बातोंमें अन्तर है। यहाँके महाप्रसादमें छुआछूतका दोष नहीं माना जाता, उच्छिष्टताका भी दोष नहीं माना जाता। एकादशी आदि व्रत-पर्वादिके दिन भी उसे ग्रहण करना विहित है। इसमें तो सन्देह नहीं है कि मूलतः पुरीका मन्दिर जैनमन्दिर है। कलिंग जिनकी वह विख्यात मूर्ति भी अबतक सुरक्षित है। इसके लिए वैष्णव समाजके प्रति आभार प्रकट करना हमारा नैतिक कर्तव्य है कि उसने उस मूर्तिकी अबतक रक्षा की तथा जैन मन्दिरमें प्रचलित कई प्राचीन परम्पराओंका अबतक निर्वाह किया है। क्या यह धार्मिक सहिष्णुताकी पराकाष्ठा नहीं कही जा सकती कि अब भी मुख्य मन्दिरके द्वारकी दीवालपर ऋषभदेवकी मुति उसी प्रकार विराजमान है, जैसे सम्राट् खारबेलने इसे विराजमान किया होगा। यद्यपि मन्दिरके अहातेमें कैमरा ले जाता और चित्र लेना वजित है, किन्तु कोई जैन बन्धु किसी भी पण्डेसे जैन मूर्तिके सम्बन्धमें कोई प्रश्न करता है तो वे बड़े प्रेमपूर्वक उसका उत्तर देते हैं। लगता है, मानो यहाँ आकर जैन धर्म और वैष्णव धर्मका संगम हुआ है । इस मन्दिर और मूर्तिके रूपमें दोनों धर्म यहाँ । प्रेमपूर्वक रह रहे हैं। १. महापुराणके अनुसार ऋषभदेवका गर्भकल्याणक आषाढ़ कृष्णा दो को हुआ था। पुरोकी रथयात्रा आषाढ़ शुक्ला दो को होती है । कृष्णा और शुक्लाका यह अन्तर प्रान्त-भेदके कारण है।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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