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________________ २१८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ एक मन्दिरका निर्माण कराया। (५) सन् १०३८ में उत्कलके गंगवंशी चोड गंगदेवने ययाति केशरी द्वारा निर्मित मन्दिरके जीर्ण होनेपर नये मन्दिरका निर्माण प्रारम्भ किया। (६) इसके ६२ वर्ष बाद अनन्त वर्मनने मन्दिरका कार्य आगे बढ़ाया और उसके पौत्र अनंग भीमदेवने उसे पूरा कराया। अन्तिम तीनों नरेश गंगवंशके थे। कलिंग जिनमतिको खोज उपर्युक्त विवरणमें जिस नीलमाधव या जगन्नाथकी मूर्तिका उल्लेख किया है, वह वस्तुतः 'कलिंगजिन' की मूर्ति थी। सम्राट् खारबेलने उदयगिरिपर स्थित हाथी गुम्फामें जो अभिलेख उत्कीर्ण कराया था, उसमें इस मूर्तिका भी उल्लेख किया गया है। उसमें इस मूर्तिका नाम 'कालिंगजिन' दिया है। शिलालेखमें स्पष्ट उल्लेख है कि अपने राज्यके बारहवें वर्षमें मगधवासियोंमें विपुल भय उत्पन्न करके खारबेलने अपने हाथियोंको गंगाका जल पिलाया, मगधके राजा वहसतिमित्र ( बृहस्पतिमित्र) को अपने चरणोंमें झुकाया तथा अंग-मगधको जीतकर नन्दराज ( महापद्मनन्द ) द्वारा आनीत 'कलिंगजिन' ( मूर्ति) को कलिंग वापस ले गये । इस 'कलिंगजिन' के सम्बन्धमें उड़ोसाके प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. लक्ष्मीनारायण साहूने अपनी पुस्तक 'उड़ीसामें जैनधर्म'के पृ. ६१-६२ पर लिखा है-"शिलालेखीय साक्षीसे हमें ज्ञात है कि यह जिनमूर्ति ही कलिंगके अधिवासियोंकी आराध्य देवता थी। इसलिए विजयी महापद्मका विजय गर्वसे उत्फुल्ल होकर 'कलिंगजिन' की ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। जैनधर्मका कलिंगमें प्राधान्य विस्तार होनेके कारण जिनमूर्तिका प्रभाव भी प्रत्येक कलिंगवासीके ऊपर कम या ज्यादा पड़ा ही होगा। अधिक क्या, महापद्म स्वयं ही जैन धर्मके उपासक थे, अन्यथा कलिंग अधिकृत करनेके उपलक्ष्यमें महापद्मने समग्र जातिके, देशके तथा अपने इष्टदेवको सुदूर पाटलिपुत्र ले जानेका प्रयास नहीं किया होता। यदि वे जैनधर्मावलम्बी न होते तो वे जिनमूर्तिको नष्ट कर देते। परन्तु हाथी गुम्फा शिलालेखसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि खारबेलके मगधपर अधिकार करनेके समय तक अर्थात् ३०० वर्षोंके दीर्घ कालमें उपरोक्त मूर्ति पाटलिपुत्रमें सुरक्षित रही थी।" __ आगे आप इस सम्बन्धमें लिखते हैं- "इसी सुअवसरपर उन्होंने शोभायात्रा निकालनेकी तैयारी की थी। खारबेलकी विराट् सैन्यवाहिनी और कलिंगके असंख्य नागरिकोंने उस महोत्सवमें योगदान दिया था और कलिंग साम्राज्यके सम्राट ही स्वयं उसके उत्सवको सुन्दर रूपसे सम्पन्न करनेके लिए यत्नवान् हुए थे। संगीत और वादित्रोंके ध्वनि-समारोहमें 'कलिंगजिन' को पूनः कलिंगमें स्थापित किया गया। हाथी गुम्फा शिलालिपिसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि खारबेल और उसके परिवारके सभी लोग जैन धर्मावलम्बी थे। उनकी भक्ति और स्नेह 'कलिंगजिन' के साथ ओतप्रोत था।" इससे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि 'कलिंगजिन' की वह मूर्ति जैनमूर्ति थी। वस्तुतः वह जैन तीर्थंकर ऋषभदेवकी मूर्ति थी और वह नीलमणिकी थी। सम्राट् खारबेलने मगधसे उस मूर्तिको वापस लाकर पहले कुमारी पर्वत ( खण्डगिरि ) पर अर्हन्त जिनालयमें विराजमान किया था और उसके लिए समुद्र-तटपर एक भव्य और समुन्नत जिनालयका निर्माण करके उस मूर्तिकी शोभा यात्रा बड़े समारोहके साथ निकाली थी और उस जिनालयमें उसकी प्रतिष्ठा की थी।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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