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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
२१७ एक रोचक किंवदन्ती
जगन्नाथजीके कलेवर-परिवर्तनके सम्बन्धमें एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है, जिससे कलेवरका परिवर्तन एक रहस्य बन गया है। कहते हैं, जो पण्डा कलेवर-परिवर्तन करता है, उसकी आँखोंपर पट्टी बाँध दी जाती है । वह टटोलकर पुराने कलेवरके हृदयके स्थानसे एक छोटी मूर्ति निकालता है और उसे नव कलेवरमें हृदयके स्थानपर रखकर उसे बन्द कर देता है। आँखोंपर पट्टी बाँधनेका कारण यह बताया जाता है कि यदि कोई विग्रह-परिवर्तन करते हुए देख ले तो उसकी और उसके परिवारकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। मन्दिर निर्माणका इतिहास
इस मन्दिरके निर्माणका क्या इतिहास है, इसका उल्लेख श्री जगन्नाथ मन्दिर परिचालना समितिकी ओरसे प्रकाशित 'श्री क्षेत्र परिचय' में इस प्रकार किया है
"पण्डु वंशके राजा उदयनके पुत्र थे इन्द्रबल । वे इन्द्रद्युम्नके नामसे अधिक परिचित थे। राजा इन्द्रद्युम्न इसी स्थानके मूल निवासियोंको साथ लेकर पहले श्री जगन्नाथजीकी पूजा-अर्चना करते थे। उन दिनों श्री जगन्नाथजीका नाम नीलमाधवके रूपमें परिचित था। इसके कई वर्षोंके बाद मगधके नन्दवंशीय नरपति महापद्मनन्द इस देवताके प्रति इतने आकृष्ट हुए कि उन्हें सबकी आँखोंसे बचाकर ममध ले गये थे। ईसाके १०० वर्ष पूर्व कलिंगके तत्कालीन महापराक्रमशाली सम्राट खारबेलने मगधपर चढ़ाई की थी और श्री जगन्नाथजीको वहाँसे लाकर इस क्षेत्र में फिरसे प्रतिष्ठित किया। ई. ८२४ में उत्कलके केशरीवंशीय पुण्यश्लोक नरपति ययाति केशरीने इस महान् देवताके लिए एक भव्य मन्दिरका निर्माण कराया था। परन्तु समुद्र तटवर्ती स्थान होनेके कारण नमकीन हवासे यह मन्दिर थोड़े ही वर्षों में नष्ट हो गया। इसके बाद ई. १०३८में उत्कलके गंगवंश सम्भूत चिरस्मरणीय नरपति महामना चोड गंगदेव या चुड़ गंगदेवके द्वारा आजके इस जगद्विख्यात मन्दिरका पुनः निर्माण हुआ। इसके प्रमाणमें गंगराज राघवदेवके ताम्रशासनपर लिखा नीचेका श्लोक दिया जा रहा है
पादौ यस्य धरान्तरीक्षमखिलं नाभिश्च मुर्वादिशः श्रोत्रे नेत्रयुगं रवीन्दुयुगलं मूर्धापि च द्यौरसी। प्रासादं पुरुषोत्तमस्य नृपतिः को नाम कर्तुं क्षमः
तस्येत्यादि नृपैरयक्षितमयं चक्रेऽथ गंगेश्वरः ॥ ११०० ई. के लगभग उत्कलके तत्कालीन नृपति अनन्तवर्मनने, अब हम जिस जगन्नाथ मन्दिरको देख रहे हैं, उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया था। उनकी एक पीढ़ीके बाद उनके नाती (पौत्र ) उत्कलके प्रमिद्ध गंगवंश नपति राजा अनंग भीमदेवके द्वारा इस विश्वप्रसिद्ध भव्य मन्दिरका निर्माण कार्य समाप्त हुआ। इस मन्दिरके निर्माणमें प्राचीन उत्कलके आ. गंगा-गोदावरी तकके एक विशाल साम्राज्यके १२ सालोंका राजस्व खर्च हो गया था। इतने वर्षों के बाद भी वही मन्दिर बिना किसी परिवर्तनके आज हमारे सामने ज्योंका त्यों खड़ा है।" ।
उपर्युक्त विवरणसे कई बातोंपर प्रकाश पड़ता है। (१) नील माधव मूर्ति, जिसे बादमें जगन्नाथजी कहा जाने लगा, महाराज उदयनके पुत्र इन्द्रद्युम्नके कालमें भी विद्यमान थी। (२) नन्दवंशका प्रतापी सम्राट् महापद्मनन्द कलिंगपर विजय प्राप्त करके इस मूर्तिको अपने साथ ले गया था। (३) सम्राट् खारबेल मगधको पराजित करके इस मूर्तिको पाटलिपुत्रसे वापस लाये और उसे उसके मूल क्षेत्रमें प्रतिष्ठित किया। (४) केशरी वंशके ययाति केशरीने सन् ८२४ में
भाग २-२८