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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मण्डप है । मुक्तिमण्डपके पीछेकी ओर मुक्त नृसिंहका मन्दिर है। इसके निकट रोहिणी कुण्ड है। उसके समीप विमलादेवीका मन्दिर है। जैन लोग इसको सरस्वतीकी मूर्ति मानते हैं।
मुक्ति मण्डपके सामने निज मन्दिरके दक्षिण द्वारमें प्रवेश करनेसे पूर्व बाहर ही बायीं ओर दीवालमें भगवान् ऋषभदेव तीर्थंकरकी एक मूर्ति विराजमान है। यह हलके सिलेटी वर्णकी खड्गासनमें लगभग एक फुट अवगाहनाकी है। पीठासनके दोनों ओर इन्द्र-इन्द्राणी विनीत मुद्रामें खड़े हुए हैं। मध्यमें दोनों ओर चमरेन्द्र चमर लिये हुए खड़े हैं। शीर्ष भागके दोनों ओर आकाशचारी देव पुष्पमाल लिये हुए हैं। मूर्ति दिगम्बर जैन है। मूर्तिका जटाजूट भव्य है। कुछ वर्ष पूर्व तक यह मूर्ति दीवालमें उत्कीर्ण अपने मूल रूपमें थी, किन्तु सुरक्षा भी दृष्टिसे बा. सखीचन्दजी कैसरे हिन्द कलकत्ताने इसके ऊपर शीशेका एक फ्रेम लगवा दिया है। इन जैन मूर्तिकी स्थापना एक हिन्दू मन्दिरमें क्यों की गयी, ऐसी कुतूहलपूर्ण जिज्ञासा मनमें उठना स्वाभाविक है। यह जिज्ञासा करनेपर वहाँके पण्डों और पब्लिक रिलेशंस आफीसरने बताया कि “यह मन्दिर आजसे २१-२२ सौ वर्ष पहले महाराजखारबेलने 'कलिंग-जिनकी मतिको विराजमान करनेके लिए बनाया था। खारबेल महाराज जैनो थे। उन्होंने सर्वसामान्यके दर्शनकी सुविधाके लिए एक जैन प्रतिमा विराजमान करायी।" पण्डों आदिने उक्त जैन मूर्तिके प्रसंगमें जो बातें बतायों, वे किंवदन्तीके रूपमें अबतक चली आ रही हैं।
निज मन्दिरमें सोलह फुट लम्बी और चार फुट ऊँची वेदी है। इसे रत्नवेदी कहते हैं। इस वेदीमें बायेंसे दायेंको-क्रमशः बलराम, सुभद्रा और जगन्नाथजी ( श्रीकृष्ण ) विराजमान हैं। जगन्नाथजीका वर्ण श्याम है । वेदीपर एक ओर छह फुट लम्बा सुदर्शन चक्र विराजमान हैं। यहीं नीलमाधव, लक्ष्मी तथा सरस्वतीकी छोटी मूर्तियाँ भी हैं।
___ तीनों ही मुख्य मूर्तियाँ अपूर्ण हैं। उनके हाथ पूरे नहीं बने हैं। मुखमण्डल भी सम्पूर्ण निर्मित नहीं है । ये दारु विग्रह हैं अर्थात् लकड़ीके बने हुए हैं।
इन प्राकारोंके भीतर और बाहर अनेक मन्दिर बने हुए हैं । इनमें एक स्थान विशेष उल्लेखनीय है, वह है कैवल्य वैकुण्ठ अथवा कोयल वैकुण्ठ । जगन्नाथजीका कलेवर प्रति वर्ष बदला जाता है। पुराने कलेवरकी समाधि इसी स्थानपर दी जाती है। इस स्थानको देव निर्वाण भूमि भी कहा जाता है। इस स्थानपर एक शाल्मलीलता छायी हुई है।
उल्लेखनीय उत्सव
यों तो वर्षमें जगन्नाथजीकी द्वादश यात्राएं होती हैं, किन्तु इनमें सबसे प्रधान महोत्सव आषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको होता है। उस दिन तीन रथोंमें बलराम, सुभद्रा और जगन्नाथजी विराजमान होकर गुण्डीचा मन्दिर जाते हैं। दूसरे दिन मूर्ति मन्दिरमें पहुँचायी जाती है। सात दिन तक मति वहींपर विराजमान रहती है। दशमीको रथयात्राकी वापसी होती है। इन नौ दिनोंके जगन्नाथजीके दर्शनको 'आड़पदर्शन' कहते हैं । जगन्नाथजीकी इस रथयात्रामें लाखों व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। रास्तेमें तीन दिन लगते हैं। रथयात्रा दिवसको स्मृतियोंमें कल्याणक दिवस माना जाता है।
रथयात्रासे पूर्व ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमाको तीनों मूर्तियोंको स्नान-मण्डपमें लाकर १०८ घड़ोंसे स्नान कराया जाता है।