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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
१९५ कलिंगवासी भूल नहीं सके। वह उनका राष्ट्र-देवता था। प्रतिमा क्या गयी मानो उनका गौरव चला गया, उनकी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा चली गयी या दूसरे शब्दोंमें उनकी राष्ट्रीय धरोहर छिन गयी। तीन सौ वर्ष जैसा लम्बा काल बीत गया, किन्तु कलिंग राष्ट्रकी आत्मा अपने इस अपहृत गौरव और प्रतिष्ठाकी बातको एक क्षणके लिए नहीं भूल सकी। इस राष्ट्रीय अपमानका बदला खारबेलने मगधसे लिया और व्याज समेत लिया। एक बार वह सेना लेकर आया और उसने गोरथगिरिके सैनिक दुर्गोंका विध्वंस करके नगरपर अधिकार कर लिया। चाहता तो वह राजगृही और पाटलिपुत्रको तभी रौंद डालता। किन्तु नहीं, वह वहींसे लौट गया। वह मगधवासियोंपर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ गया, उनके मनमें आतंक और भयकी भावना पैदा कर गया। उसके चार वर्ष बाद वह पूनः आया किन्तु सीधे मार्गसे नहीं। सीधे मार्गसे तो आयो उसकी सेनाको एक टुकड़ी और स्वयं आया हिमालयकी तलहटी होकर और एक दिन मगधवासियोंने उसके घोड़ोंकी हिनहिनाहट, हाथियोंकी चिंघाड़ सूनी गंगाके दूसरे तट पर। सारा मगध स्तब्ध रह गया, भयसे बिजडित हो गया। वहसतिमित्रकी सेनाओंने गंगा-तटपर ही मोर्चा लिया। खारबेलके हाथी, घोड़े आरामसे गंगामें पैठकर दूसरी ओर निकलते रहे और वहसतिमित्रकी सेनापर आतंकका ऐसा फालिज मारा कि वह उन्हें राह देती रही। उसे चेत आया तब जब खारबेलके सेनापतिने गंगा-तटपर बने राज-प्रासादोंपर कलिंग चक्रवर्ती खारबेलकी ध्वजा फहरा दी और प्रासादपर अधिकार कर लिया। किन्तु बाजी खारबेलने जीती थी। वहसतिमित्र अन्य बहमूल्य भेंटोंके साथ उस कलिंग-जिन-प्रतिमाको लेकर आया, अपनी तलवार और मुकुट खारबेलके चरणोंमें रखकर हाथ बाँधकर खड़ा हो गया।
इसके साथ ही खारबेलके विजय-अभियान पूरे हो गये । उसके जीवनकी साध पूरी हो गयी थी। उसने कलिंग राष्ट्रके अपमानका बदला ले लिया था मगधके राजा और सम्पूर्ण मगधवासियों से। सही अर्थों में खारबेल सम्राट् नहीं, जनताकी आकांक्षाओंका सफल प्रतिनिधित्व करनेवाला लोक-नायक था। इसीलिए उसकी विजयोंका लाभ उसकी जनताको मिला; उपहारोंमें मिले बहमल्य रत्नोंका उपयोग उसके राष्टके लिए हआ।
अभिषेक हजेके पहले ही वर्षमें उसने तूफानमें नष्ट या क्षतिग्रस्त हुए कोटद्वार, महल और नगरके मकानोंकी मरम्मत करायी। बाग-बगीचे लगवाये। इन कामोंमें पैंतीस लाख रुपये लगे। तीसरे वर्षमें उसने सांस्कृतिक आयोजनोंपर विशेष ध्यान दिया। गीत, नृत्य, वादिवसे नगरका उदास मन प्रफुल्लित हो उठा। जनताके सूखे मनोंको रस सींचकर हरा-भरा कर दिया। स्वयं भी गीत, नृत्य और वादित्रकी शिक्षा ली और समाजोंमें भाग लेकर जनताका मनोरंजन किया। उसने धर्मकूट जिनालयमें महापूजा की और उसमें बड़े समारोहके साथ छत्र गार चढ़ाये । नन्दराजने जो नहर बनवायी थी, उसे और बढाया। राजत्वके छठे वर्ष में उसने पौर और जानपद संघोंको विशेष अधिकार प्रदान किये। फिर उसने ३८ लाख रुपये लगाकर महाविजय नामक मन्दिर बनवाया।
_उसने अत्याचारी राजाओंके अत्याचारोंसे प्रजाकी रक्षा की तथा तेरह सौ वर्षोंसे चले आ रहे मार्ग-कर और जनपद भावन-करको कलमकी एक नोकसे हटा दिया। उसने राजत्वके नौवें वर्षमें बड़ा भारी धार्मिक उत्सव किया और 'कल्पतरु' बनाकर सबको किमिच्छक दान दिया। योद्धाओंको रथ, हाथी, घोड़े दिये। ब्राह्मणोंको भी दान दिया और प्राची नदीके दोनों तटोंपर 'विजय प्रासाद' बनवाकर अपनी विजयकी स्मृतिको सुरक्षित बना दिया। बारहवें वर्षमें मगधको हराकर और कलिंग-जिनकी प्रतिमा वापस लाकर उसने विशाल समारोहके साथ उस प्रतिमाको