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________________ १९४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - दूसरे वर्षमें उसने सातवाहन सातकणिके विरुद्ध दुर्जय सेना लेकर अभियान किया और प्रतापी सातवाहनका अभिमान चूर-चूर कर दिया । यहाँसे वह कृष्णा नदीके तटपर बसे हुए मूषिक राज्य ( कुछ विद्वानोंके मतसे अशिक नगर ) की छातीपर चढ़ बैठा । फलतः शक्तिशाली मूषिकोंको भी उसकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। वह तीसरे वर्ष अपनी राजधानीमें ही रहा। चौथे वर्ष उसने विन्ध्याचलमें विद्याधरोंके नगरोंपर अधिकार किया और रथिक एवं भोजक लोगोंको अपने अधीन किया। आठवें वर्ष में उसने मगधपर आक्रमण किया। इस अभियानमें वह गोरथगिरि ( गयाके पास बराबर हिल्स ) तक जा पहुंचा। यह मगधको राजधानी राजगृहकी पश्चिमी सैनिक चौकी या दुर्ग थी। गोरथगिरि तक पहुँचनेका परिणाम यह हुआ कि मगधनरेश वह सतिमित्र ( बृहस्पति मित्र ) पर भयानक दबाव पड़ा । दूसरा प्रभाव यह हुआ कि यवननरेश दिमित जो प्रबल वेगसे राजगृहकी ओर अपनी विजयिनी सेनाके साथ बढ़ता चला आ रहा था, खारबेलका नाम सुनते ही भयसे काँपने लगा। उसकी सेनाका मनोबल इतना गिर गया कि वह आतंकसे विजड़ित हो गयी। फलस्वरूप दिमित अपनी निराश सेनाको लेकर मार्गसे ही मथुरा लौट गया। किन्तु खारबेलने उस विदेशीका पीछा किया और भारतकी सीमासे बाहर निकालकर ही दम लिया। दसवें वर्ष वह उत्तर भारतकी विजयके लिए निकला। ग्यारहवें वर्ष वह दक्षिणकी ओर गया और उसने पिथुण्ड (पितुन्द्र) नगरको नष्ट करके गधोंसे हल चलवा दिया। इसी वर्ष ११३ वर्षोंसे चले आ रहे त्रामिल अथवा द्रामिलके राज्यसंघको नष्ट कर दिया जो उसके राज्यके लिए खतरा साबित हो सकता था। उसके राज्य-शासनका बारहवाँ वर्ष युद्धोंकी दृष्टिसे अन्तिम वर्ष था। इस वर्ष उसने अनेक महत्त्वपूर्ण विजयें प्राप्त की। उत्तरापथके नरेशोंके दिल भयसे काँपने लगे। मगधवासियोंमें आतंक छा गया। उसने अपने हाथियोंको गंगाका पानी पिलाया। मगधपर खारबेलका यह आक्रमण इतने भयानक वेगसे हुआ था कि वहसतिमित्रको खारबेलके चरणोंमें नतमस्तक होना पड़ा था। यह आक्रमण एक तरहसे अशोकके कलिंग-आक्रमणके प्रतिशोध रूपमें था। उसने अंग और मगधको मूल्यवान् भेटें लेकर राजधानीको प्रयाण किया था। इस भेंटमें कलिंगके राजचिह्न और 'कलिंग-जिन' की प्राचीन मूर्ति भी थी जिसे नन्द राजा मगध ले गया था। खारबेलने उस अतिशयसम्पन्न मतिको कलिंग वापस लाकर बड़े उत्सव समारोहके साथ विराजमान किया था। उस घटनाको स्मृतिमें उसने विजय-स्तम्भ भी बनवाया था। इसी वर्ष खारबेलके प्रतापका लोहा मानकर दक्षिणके पाण्ड्य नरेशने उसका सत्कार किया और हाथी, घोड़े, रत्न, जवाहरात आदि बहुमूल्य भेटें अर्पित की। इन द्वादशवर्षीय विजयोंसे वास्तवमें वह भारत सम्राट बन गया था। उसने लगभग सारे भारतके राजाओंको पराजित कर दिया था, केवल बंगाल और आसाम ही बच पाये थे। किन्तु विशेषता यह रही कि जिन राज्योंको उसने जीता, वे उसके करद माण्डलिक भले ही बन गये हों, किन्तु उसने किसी राजाको उसके राज्यसे च्युत नहीं किया और न किसी राज्यको अपने राज्यमें मिलाया ही। इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि समस्त भारत उसके प्रभाव क्षेत्रमें था। जन-कल्याणकारी राज्य खारबेलकी विजय उसकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाकी परिणाम नहीं थी। उसने जितने अभियान किये, उनका एकमात्र उद्देश्य था अपने देश-कलिंगकी गौरव-वृद्धि । नन्दराज जिस 'कलिंग-जिन' की प्रतिमाको अपनी विजयके उपहारस्वरूप अपने साथ ले गया था, उसको
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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