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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ १९३ कामिनियां उसपर मोहित हो जाती थीं। किन्तु वह चरित्रवान् और सदाचारी था। अतः वह कभी वासनाकी दृष्टिसे स्त्रियोंकी ओर नहीं देखता था। उसके बलका रहस्य उसके सदाचारमें निहित था। उसने अपनी आयुके पन्द्रह वर्ष राजकुमारोचित क्रीड़ाओंमें व्यतीत किये। वह अध्ययनमें कुशाग्रबुद्धि था। पन्द्रह वर्षकी अवस्था तक उसने अनेक विद्याओंमें निपुणता प्राप्त कर ली थी और अनेक विषयोंसे सम्बन्धित शास्त्रोंका अध्ययन कर लिया था। युवराज-पद अभिलेखके अनुसार खारबेल सोलह वर्षकी अवस्थामें युवराज पदपर अभिषिक्त हुआ और इस पदपर वह चौबीस वर्षकी अवस्था तक रहा। इस कालमें उसने लिपि विद्या, गणित, नीतिशास्त्र तथा अन्य व्यवहारोपयोगी विषयोंमें दक्षता प्राप्त कर ली। अपने जीवन-कालकी सफलताकी आधारशिला उसने इसी कालमें रख ली। राजकाजमें वह अपने पिताका हाथ बँटाता था। सामदाम-दण्ड-भेद सम्बन्धी राजनैतिक गुरुमन्त्रोंमें वह अत्यन्त चतुर था। अपने अधीन सामन्तों और कर्मचारियोंके प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कोमल, उदार और सहानुभूतिपूर्ण होता था। इससे राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनोंमें ही वह समान रूपसे प्रिय हो गया था। खारबेलकी दिग्विजय चौबीस वर्षको अवस्थामें खारबेलका राज्याभिषेक हुआ। खारबेल एक महत्त्वाकांक्षी वीर युवक था। उसकी आकांक्षा समस्त भारतको विजित करके एकसूत्रमें आबद्ध करनेकी थी। उस समय देश अनेक मुख हो रहा था। मौर्य साम्राज्यके निर्बल पड़ते ही चारों ओर स्वतन्त्र राज्य बन गये थे। अन्तिम मौर्य सम्राट् बृहद्रथको मारकर उसका प्रधान सेनापति पुष्यमित्र शुंग मगधका शासक बन बैठा था। उसने उत्तर भारतमें एक मजबूत साम्राज्यकी स्थापना कर ली थी। उसका राज्य शाकल ( स्यालकोट ) से लेकर बंगालकी खाड़ी तक, दक्षिणकी ओर नर्मदा नदी तक और दक्षिण-पूर्वमें आधुनिक बघेलखण्ड तक फैला हुआ था। उसने दो बार अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किये । इसी समय दक्षिणमें (महाराष्ट्र-कर्णाटकमें) आन्ध्रजातीय सातवाहनोंने एक नये राज्यकी स्थापना की। सातवाहन, जिसे शालिवाहन भी कहते हैं, राज्यके संस्थापकका नाम सिमुक था। उसकी तीसरी पीढ़ीमें सातकणि हुआ। यह भी बड़ा प्रतापी राजा था। इसने भी दो बार अश्वमेध और एक बार राजसूय यज्ञ किया था। इस कालका तीसरा राजा था यवन नरेश दिमित ( डेमेट्रियस ) । वाख्त्रीका यह यवन राजा बड़ा पराक्रमी था। उसने शाकल जीतकर मध्यदेशको जीत लिया। फिर साकेत और मध्यमिका नगरी (चित्तौड़से छह मिल ) को घेरकर वह मगध तक जा पहुंचा। मौर्य साम्राज्यकी अवनतिके समय ही कलिंगमें भी एक स्वतन्त्र राजवंश उठ खड़ा हुआ। उस राजवंशमें तीसरी पीढ़ीमें खारबेल हुआ। ये चारों ही राजा बड़ी शक्तिशाली सेनाके स्वामी और प्रतापी नरेश थे। किन्तु खारबेल सर्वोपरि थे और उन्होंने इन तीनों राजाओंको पराजित करके उनका मान-मर्दन किया था। खारबेलकी इस दिग्विजयपर हाथीगुम्फा अभिलेखसे कुछ प्रकाश पड़ता है। इस अभिलेखके अनुसार उसने अपने राज्यके प्रथम वर्षमें तूफानमें टूटे हुए कोट द्वार, महल तथा मकानोंकी मरम्मत करायी। छावनी और तालाबके चारों ओर रक्षिका दीवाल खिंचवायी। यह कार्य सैनिक दृष्टिसे आवश्यक था। दूसरेपर आक्रमण करनेसे पहले अपनी सुरक्षाके उपाय करना बुद्धिमानी कहलाती है। इस कार्य में उसने पैंतीस लाख रुपये खर्च किये। भाग २-२५
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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