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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ चम्पानरेश दधिवाहनको करकण्डुका बढ़ता हुआ प्रभाव सहन नहीं हुआ। उसने दूत भेजकर करकण्डुको अधीनता स्वीकार करनेका सन्देश भेजा। तेजस्वी करकण्डुने अधीनता स्वीकार नहीं की और वह युद्धके लिए तैयार हो गया। जब चम्पाके मैदानमें दोनों सेनाएँ आमनेसामने आ डटी और युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था, तभी पद्मावती दोनोंके बीच आ खड़ी हुई। उसने पिता-पुत्रको एक दूसरेसे परिचित कराया। युद्ध रुक गया । पिता और पुत्र मिले। दधिवाहन अपनी बिछुड़ी हुई पत्नी और पुत्रको बड़े प्रेमपूर्वक महलोंमें ले गया। फिर उसने अपने पुत्रको चम्पाका भी राज्य-भार सौंप दिया।
अंग देशका राज्य मिलनेपर करकण्डुके राज्यकी सीमाएँ काफी विस्तृत हो गयीं। इसके बाद उसने दक्षिणके राजाओंकी ओर ध्यान दिया। वह सेना लेकर दिग्विजयके लिए निकला। उसने द्रविड़ देशके चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओंपर आक्रमण कर दिया। तीनों राजाओंने आकर करकण्डुके चरणोंमें मस्तक झुकाया। किन्तु जैसे ही उसकी दृष्टि उन राजाओंके मुकुटोंमें लगी हुई जिनेन्द्र देवकी मूर्तिकी ओर गयी, उसने अपना पैर खींच लिया। पूछनेपर उसे ज्ञात हुआ कि ये तीनों राजा जैन धर्मानुयायी हैं, वह इनसे गले मिला और क्षमा याचना की।
वहाँसे वह तेरापुर नगर पहुँचा। वहाँके राजा शिवने आकर उससे भेंट की और बताया कि पास ही एक पहाड़ीपर एक गुफा है। उस पहाड़ीके ऊपर एक वामी है। एक हाथी प्रतिदिन कमल-पुष्पसे उसकी पूजा करता है । इस आश्चर्यजनक घटनाको सुनकर करकण्डु सब लोगोंके साथ उस पहाड़ी पर गया। वहाँ गुफामें पार्श्वनाथ भगवान्की प्रतिमाके दर्शन किये और ऊपर जाकर उस वामी को देखा। उनके समक्ष ही हाथी कमल पुष्प लेकर आया और उस वामीपर चढ़ा दिया। करकण्डुने सोचा-यहाँ कोई देव-मूर्ति होनी चाहिए। तब उसने वामीको खुदवाया। फलतः वहाँ पार्श्वनाथ भगवान्की मूर्ति निकली। उस मूर्तिको लेकर वे उस गुफामें आये । करकण्डुको उस प्राचीन रत्न प्रतिमामें एक गाँठ दिखाई दी, जिससे मूर्तिकी शोभामें अन्तर आ रहा था। एक वृद्ध शिल्पकारसे उस गाँठका रहस्य ज्ञात हुआ कि जब यह गुफा बनायी गयी थी, उस समय यहाँ एक जलवाहिनी निकल पड़ी थी। उसे रोकनेको यह गाँठ लगायी गयी है। राजाको बड़ा कुतूहल हुआ और मना करनेपर भी उसने वह गाँठ तुड़वा दी। गाँठके टूटते ही वहाँ जल-प्रवाह भयंकर वेगसे निकल पड़ा। सारी गुफा जलसे भर गयी। राजाको अपने कृत्यपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ।
एक विद्याधरसे राजाको इस गुफाका इतिहास मिला। तदनुसार रथनूपुर नगरमें नील और महानील नामक दो भाई राज्य करते थे। शत्रुसे परास्त होकर वे वहाँसे भाग निकले और आकर तेरापुर में बस गये । यहाँ उन्होंने अपना राज्य स्थापित कर लिया। एक मुनिके उपदेशसे उन्होंने जैन धर्म धारण कर लिया और गुहा-मन्दिर बनवाया। उसी समय दो विद्याधर लंकाकी यात्राको जा रहे थे। मार्गमें मलय देशके पूर्वी पर्वतपर उन्होंने रावणके किसी वंशज द्वारा बनवाये हुए जिन मन्दिरमें एक सुन्दर जिनमूर्ति देखी। अपने यहाँ वैसी ही मूर्ति बनवानेके विचारसे वे उस मूर्तिको उठा ले गये। तेरापुर पहुंचने पर वै उस मूर्तिको पहाड़ीपर रखकर जैन मन्दिरके दर्शनोंके लिए चले गये। वापस आकर उस मूर्तिको उठाना चाहा, किन्तु वह नहीं उठी। तबसे वह मूर्ति यहींपर विराजमान है । इसके पश्चात् करकण्डुने वहाँ दो गुफाएँ और बनवायीं, जो अब भी मौजूद हैं।