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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
ये राजा वस्तुतः मुरुण्ड वंशके थे । ये मुरुण्ड वंशी राजा जैन धर्मके अनुयायी थे । अतः इनके शासन काल में भी कलिंग में जैन धर्मका प्रभाव बना रहा। ग्रीक इतिहासकार टोल्मीके अनुसार द्वितीय शताब्दीमें मुरुण्ड राज्यका विस्तार तिरहुतसे गंगा नदीके मुहाने तक रहा है । इन मुरुण्ड राजाओं का वर्णन 'सिंहासन द्वात्रिंशिका', 'बृहत्कल्पतरु', 'अभिधान राजेन्द्र कोष' भाग दो आदि जैन ग्रन्थोंमें भी उपलब्ध होता है ।
मुरुण्डों के पश्चात् गुप्त सम्राटोंका यहाँ शासन रहा । उनके कालमें जैन धर्मको कोई क्षि नहीं पहुँची । गुप्तोत्तर कालमें कलिंग में गंगवंश, कगोदर शैलोद्भव वंश, तोषलका भौमवंश, खिजली मण्डलका भंज वंश और कोशलोत्कलका सोमवंश इन राजवंशोंका शासन रहा । ये राजवंश प्रायः शाक्त, शैव या वैष्णव धर्मोके अनुयायी थे । इस काल में भी खण्डगिरि- उदयगिरि जैन धर्म के केन्द्र थे । इसी कालमें खण्डगिरिकी नवमुनि गुफा, बारभुजी गुफा और ललाटेन्दु केशरी गुफाका निर्माण हुआ। उड़ीसा अनेक स्थानोंपर - जैसे आनन्दपुर (दुझर) चोद्वार (कटक), घुमुसर (गंजाम), नवरंगपुर ( कोरापुट ) और पुरीकी प्राचीन उपत्यकामें उत्खननके फलस्वरूप जैन धर्म सम्बन्धी बहुमूल्य पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्री प्राप्त हुई है, वह सब मध्ययुगकी ही है । इससे ऐसा प्रमाणित होता है कि मध्ययुगमें जैन धर्मका प्रभाव उड़ीसा में अप्रतिहत था । इसी कालमें प्रसिद्ध सोमवंशी राजा उद्योतकेशरी, जिन्हें ललाटेन्दु केशरी भी कहते हैं, ने शिवभक्त होते हुए भी जैन साधुओं के लिए ललाटेन्दु केशरी गुफाका निर्माण कराया । इसीके शासन काल में मुनि कुलचन्द्रके प्रख्यात शिष्य आचार्य शुभचन्द्र तीर्थयात्रा के लिए खण्डगिरि आये और उन्होंने यहाँ जैन धर्म का प्रभाव बढ़ाने का प्रयत्न किया ।
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करकण्डु नरेशकी जीवन कथा अत्यन्त रोचक है । चम्पानरेश दधिवाहन अपनी रानी पद्मावती दोहद पूर्ति करने एक दिन हाथीपर वन - बिहार के लिए गये । नगरसे बाहर निकलते ही शीतल वायुके अनुभवसे हाथी मस्त हो उठा । वह राजदम्पतिको लेकर भागा । राजा तो किसी प्रकार एक वृक्षकी शाखा पकड़कर बच गया, किन्तु रानी पद्मावती भयाच्छन्न होकर हाथीकी पीठसे चिपकी बैठी रही । हाथी अनेक वनों और नगरोंको पार करता हुआ कलिंग देशमें एक तालाब के पास पहुँचा । वह बुरी तरह थक चुका था । वह ज्यों ही तालाब में घुसने लगा, रानी किसी प्रकार हाथी से उतर आयी और रोती बिलखती चल दी । एक मालीने उसे इस दशामें देखा तो उसे दया आ गयी और वह उसे अपनी बहन बनाकर अपने घर ले गया । किन्तु कुछ दिनों पश्चात् मालीकी स्त्रीने उसे घर से निकाल दिया । वह दुखी मनसे श्मशानकी ओर चल दी । तभी उसे प्रसव वेदना हुई और श्मशानमें ही उसने पुत्र - प्रसव किया। वहाँ एक शापग्रस्त विद्याधर आया । उसने रानीसे प्रार्थना की और वह पुत्र लालन-पालन के लिए ले लिया ।
वह बालक विद्याधरके घरपर दिनोंदिन बढ़ने लगा । जन्मसे उसके हाथमें खाज थी, इसलिए उसका नाम करकण्डु रखा गया । थोड़े ही समय में वह समस्त विद्याओं में निष्णात हो गया। जब वह युवावस्थाको प्राप्त हुआ, तब दन्तिपुर नरेशका देहान्त हो गया । दन्तिपुर उस समय कलिंगकी राजधानी थी। नरेशके कोई सन्तान नहीं थी । तब मन्त्रियोंने निश्चय किया कि राजहस्तीको जलसे भरा हुआ कलश दे दिया जाय । वह जिसका अभिषेक कर दे उसको यहाँका राजा बना दिया जाय। ऐसा ही किया गया । करकण्डुके भाग्यने जोर मारा और वह राजा बना दिया गया । राजा बनते ही उसने राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया ।