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________________ १८५ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ 'उत्तराध्ययन' सूत्रसे प्रतीत होता है कि भगवान् महावीरके समयमें कलिंग जैन धर्मका केन्द्र था और कलिंगका पिहुँड नामक बन्दरगाह प्रसिद्ध जैनतीर्थ था। हाथी गुम्फा शिलालेखमें जिस 'पिधुंड' की चर्चा आयी है, सम्भवतः वह 'पिधुंड' और 'पिहुंड' दोनों एक ही हैं। उपर्युक्त विवरणसे यह स्पष्ट हो जाता है कि कलिंगमें जैन धर्म बहुत प्राचीन समयसे विद्यमान था। पार्श्वनाथके कालमें जैन धर्मका विशेष प्रचार हुआ और महावीर कालमें तो यह वहाँके जन-जनका धर्म हो गया। भगवान् महावीरके पश्चात् उनके गणधर सुधर्माचार्य अपने पाँच सौ शिष्योंके साथ इस प्रान्तमें पधारे । उस समय उण्ड्र प्रान्तके धर्मपुर नगरका राजा यम न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करता था। उसको एक रानी धनवतीसे गर्दभ नामक पुत्र और कोणिका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। अन्य रानियोंसे उसके पाँच सौ पुत्र थे। वे अत्यन्त धार्मिक थे और संसारसे उदासीन रहते थे। एक बार सुधर्माचार्य पाँच सौ शिष्यों सहित नगरके बाहर उद्यान में पधारे। नगरके सब लोग आचार्य महाराजके दर्शनोंके लिए गये। उन्हें जाते देखकर राजा भी गया, किन्तु अपने पाण्डित्यके अभिमानमें वह मुनियोंकी निन्दा करता हुआ गया। मुनि-निन्दाका परिणाम यह हुआ कि तीव्र अशुभ कर्मके उदयसे उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी। राजाको अपनी मूर्खतापर बड़ा दुःख हुआ और वह अपने पापोंका प्रायश्चित्त करने लगा। उसने मुनिराजका उपदेश सुना और प्रभावित होकर अपने पाँच सौ पुत्रोंके साथ मुनि-दीक्षा ले ली। दीक्षाके बाद निरन्तर स्वाध्याय करते रहनेके फलस्वरूप सभी मुनियोंने विद्वत्ता प्राप्त कर ली। किन्तु यम मुनिको णमोकार मन्त्रका उच्चारण तक करना नहीं आता था। उन्होंने घोर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। फलतः उन्हें अल्पकालमें ही सातों ऋद्धियाँ मिल गयीं। एक बार वे धर्मपुर नगरके पास कुमारी पर्वतपर पाँच सौ मुनियों के साथ पधारे। वहाँ सल्लेखना द्वारा उनका समाधि मरण हो गया और वे स्वर्गों में महद्धिक देव हुए। इस घटनासे स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीरके कालमें तथा उनके पश्चाद्वर्ती कालमें भी कलिंगमें जैन धर्मका व्यापक प्रभाव था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दीमें नन्दवंशके प्रतापी नरेश महापद्मनन्दने कलिंगपर आक्रमण किया। इस युद्ध में कलिंगको पराजित होना पड़ा, इस विजयके प्रतीक रूपमें नन्दराज 'कलिंगजिन' प्रतिमाको अपने साथ अपनी राजधानी पाटलिपुत्र ले गया। यह प्रतिमा कलिंगमें राष्ट्रीय प्रतिमाके रूप में मान्य थी। हाथीगुम्फा लेखसे भी इसका समर्थन होता है। कलिंगने शीघ्र ही पुनः स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली। किन्तु कलिंगवासी अपने आराध्य 'कलिंगजिन' को नहीं भूल सके । 'कलिंग-जिन' की प्रतिमाके साथ उनका एक भावनात्मक सम्बन्ध था। यह उनके राष्ट्रीय गौरव और जातीय स्वाभिमानका प्रश्न था। यह एक प्रतिमामात्र नहीं थी, उसके साथ उनकी राष्ट्रीय चेतना और धार्मिक श्रद्धाका प्रश्न जुड़ा हुआ था। वे इस अपमानको भूल नहीं सके । यह उनके सारे राष्ट्रका अपमान था। _अभी कलिंगको स्वतन्त्रताकी साँस लेनेका अवकाश ही मिल पाया था कि उसके ऊपर भयानक वेगसे पुनः विपत्ति आ पड़ी। यह विपत्ति विश्व इतिहासकी भयानक घटनाओंमें से एक थी। ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दीमें मौर्य सम्राट अशोकने विशाल वाहिनीके साथ कलिंगके ऊपर आक्रमण कर दिया। कलिंगवासी स्वभावसे ही स्वातन्त्र्य-प्रिय और वीर योद्धा रहे हैं। इस संकट कालमें वे अपने सारे मतभेद भूलकर संगठित हो गये। उनके समक्ष केवल एक ही लक्ष्य थामातृभूमिकी आजादी। भाग २-२४
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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