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बिहार-बंगाल-उड़ीसाकै दिगम्बर जैन तीर्थ
१८१ एक जनपदको तीर्थंकर ऋषभदेवने कलिंग नाम दिया। इससे कलिंगका इतिहास ऋषभदेवके काल तक जा पहुँचता है। उस समय इसकी भौगोलिक सीमाएँ क्या थीं, यह बताना तो कठिन है क्योंकि प्राचीन साहित्यमें इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु इतिहास-कालके प्रारम्भसे सम्भव है, उससे भी पहलेसे, इसमें छह देश सम्मिलित थे-ओड्र, कलिंग, कंगोद, उत्कल. दक्षिण कोशल एवं गंगराडी। कालक्रमसे दक्षिण कोशलका कुछ भाग इससे पृथक् हो गया । तब शेष क्षेत्रका नाम त्रिकलिंग हो गया और इसमें ओड्र, उत्कल और कलिंग प्रदेश ही रह गये।
प्राचीन कालमें अपनी सुरक्षित भौगोलिक स्थिति और उपजाऊ भूमिके कारण कलिंगवासी अत्यन्त समृद्ध और सुखी थे। इसके पृष्ठ भागमें अभेद्य पर्वतीय वन प्रदेश था। उत्तरमें गंगाब्रह्मपुत्रकी उपजाऊ घाटियाँ थीं। दक्षिणमें गोदावरी-कृष्णाका दोआब था । पूर्वमें हिन्द महासागरसे सुरक्षित बंगालकी खाड़ी थी। विन्ध्य पर्वतमालाओं और समुद्र के बीचमें यह प्रदेश एक प्रकारसे उत्तरापथ और दक्षिणापथका प्रवेश-द्वार और सजग प्रहरी रहा है। अपनी इस महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थितिके कारण इस प्रदेशने उत्तर और दक्षिणकी सांस्कृतिक थातीके आदान-प्रदानमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। प्रकृतिने सुन्दर जलवायु, आवश्यक वर्षा, अनेक नदियों आदिके रूपमें इसे अपना कोष खुले हाथों लुटाया है।
प्रकृतिने ही प्राचीन कलिंगको तीन भागोंमें विभाजित कर दिया। पहला भाग मैदानी है। यह दामोदर नदीके पश्चिमी किनारेसे शुरू होता है। इस भागमें मयूरभंज, केओझर और अंगुलके पर्वतीय भूभाग तथा रूपनरायन, हल्दी, सुवर्णरेखा, वैतरणी, ब्राह्मणी (प्राची) आदि नदियाँ सम्मिलित हैं। दूसरा भाग महानदीके दायें तटसे प्रारम्भ होता है। इसमें महानदी और गोदावरीके बीचकी पर्वत श्रेणियाँ सम्मिलित हैं जो समुद्र तट तक चली गयी हैं। इस भागमें ऋषिकुल्या नदी बहती है और इस प्रदेशको दो समान भागोंमें विभाजित करती है। महेन्द्रगिरिके दक्षिणमें लांगुलिया नदीके किनारे किनारे मैदानी भाग है। यही इसका तीसरा भाग है। इसीके तटपर कलिंगकी प्राचीन राजधानी-कलिंग नगर बसा हुआ था। इस प्रदेशमें कोई प्रमुख नदी नहीं है, इसलिए यह भाग विशेष उपजाऊ नहीं है।
इस प्रदेशमें उड़िया भाषा बोली जाती है। इसका निकास मागधी अपभ्रंशसे हुआ है। इसकी विशेषता यह है कि जो लिखा जाता है, वैसा ही उच्चारण होता है। ईसाकी तीसरी शताब्दी तक इस प्रदेशके ऊपर प्राकृत भाषाका प्रभाव रहा और तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी तक इसके ऊपर संस्कृतका प्रभाव रहा। इसके पश्चात् उड़िया भाषाका निखार और विकास . प्रारम्भ हुआ।
ओड्र, उत्कल और कलिंग ये नाम वस्तुतः वहाँकी निवासी जातियोंके नामपर पड़े थे। द्रविड़ भाषाओंमें ओड्डिसु और ओक्कलका अर्थ कृषक होता है। कनड़ी भाषामें किसानको ओक्कलगर कहा जाता है तथा तेलगु भाषामें ओड्डिसुका अर्थ श्रमिक होता है। इन्हीं दोनों शब्दोंके संस्कृत रूप ओड़ और उत्कल बन गये। इसी प्रकार चिल्का झीलके दक्षिणी तटपर कलिंग अथवा कलिंगी नामक एक कृषक जाति रहती है। उसीके नामपर सम्भवतः कलिंग प्रदेश बन गया।
१. Early history of Orissa, by Dr. Amar Chand Jain, p. 16.