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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ (५) एक सोलह इंची पाषाणफलकमें दो खड़गासन मूर्तियाँ हैं। बायीं ओरकी मूर्ति भगवान् आदिनाथकी तथा दायीं ओरकी मूर्ति भगवान् महावीरकी है। दोनोंके जटाजूट दर्शनीय हैं।
(६) एक शिलाफलकमें डेढ़ फुट अवगाहनावाले पार्श्वनाथ तीर्थंकर ध्यानमुद्रामें खड़े हैं। दोनों ओर चमरवाहक खड़े हैं। उनके ऊपर दो-दो पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं जो सम्भवतः वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ और महावीर तीर्थंकरोंकी हैं। अतः निश्चय ही यह फलक पंचबालयति तीर्थंकरोंका है। पार्श्वनाथ भगवानके सिरके दोनों ओर पुष्पमाल लिये गन्धर्व हैं। कोनोंपर हाथोंमें दुन्दुभि और झाँझ दीख पड़ते हैं।
मुख्य वेदी-इसका गर्भगृह पहलेकी अपेक्षा बड़ा है। इस वेदीपर १३ पाषाण प्रतिमाएँ और १ धातु प्रतिमा प्राचीन है । मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभकी आठ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा है । यह श्याम वर्णकी है । इस वेदीकी उल्लेखनीय प्रतिमाओंमें दो पाषाण चैत्य हैं, जिनपर चारों दिशाओंमें चार प्रतिमाएं बनी हुई हैं। एक शिलाफलकमें ऊपरकी पंक्तिमें मध्यमें आदिनाथकी पद्मासन मूर्ति है । उसके दोनों ओर चार-चार खड्गासन मूर्तियाँ हैं। इनके नीचे आठ पंक्तियोंमें खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। प्रत्येक पंक्तिमें १९-१९ मूर्तियाँ हैं। यह सहस्रकूट जिनचैत्य कहलाता है।
एक अन्य पाषाणफलकमें आदिनाथ और महावीर अर्थात् आद्य और अन्तिम तीर्थंकरकी मूर्ति है । शान्तिनाथ भगवान्की एक मूर्ति डेढ़ फुट अवगाहनावाली है। इसके पादपीठपर हरिणका चिह्न है तथा इसका भामण्डल दर्शनीय है।
पीतलकी एक मूर्ति सत्तरह इंचकी है। यह ऋषभदेवको खड्गासन मूर्ति है। इसका जटाजूट अत्यन्त भव्य है।
____ मन्दिर प्राचीन है। दोनों गर्भगृहोंके ऊपर विशाल शिखर बने हुए हैं। ये द्रविड़ कलाके उत्कृष्ट उदाहरण कहे जा सकते हैं। दोनों शिखर पृथक् शैलीके हैं। इनको देखकर कलाकारकी दक्षता और अद्भुत कल्पनाके दर्शन होते हैं ।
बन हुए हैं। ये द्रविड कला
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दानों शिखर पथक ब
दक्षता और अद्भत
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भानपुर
___ यह एक छोटा-सा गाँव है । यह कटकसे भुवनेश्वर जानेवाली सड़कपर कटकसे ८ कि. मी. दूर है। यहाँ भूगर्भसे प्राप्त पाँच धातु प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। नकुलभट्ट खण्डायत नामक जिस व्यक्तिको ये प्रतिमाएँ कुआँखाई नदीमें मिट्टी खोदते हुए मिली थीं, उन्होंने इस सम्बन्धमें जो कुछ बताया, इस प्रकार है-"मेरी आर्थिक स्थिति पहले अत्यन्त खराब थी। दाल-भातका खर्च कठिनाईसे निकलता था। आजसे पाँच वर्ष पहले बाँध भरनेके लिए मैंने मिट्टीका ठेका लिया था। एक दिन मैं कुआँखाई नदीमें मिट्टी खोद रहा था, तभी मुझे खुदाईके समय ये मूर्तियाँ मिलीं। मिट्टीमें से निकलकर भगवान्ने मुझे दर्शन दिये हैं, इस बातसे मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई । मैं हर्षमें अपनी गरीबीका दुख भी भूल गया। मैंने लाकर भगवान्की मूर्तियोंको एक पेड़के नीचे विराजमान कर दिया। कामके समयके अतिरिक्त मेरा सारा समय भगवानकी सेवा-अर्चा में ही जाता था। भगवान् जब स्वयं ही मेरे घर पधारे थे, तो मुझे फिर कमी किस बातकी रहती। भगवानकी कृपा हई तो जमीन-जायदाद भी खरीद ली, चावलका मिल खोल लिया है। अब सब तरहसे मौज है। मिलके पास ही यह छोटा-सा मन्दिर बनवा दिया है और भगवान्को लाकर यहाँ विराजमान कर दिया है।"