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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ १७१ उसके मध्य में सिंहासन तथा चारों ओर नालियाँ बनी हुई हैं। एक कोनेपर पाषाण-पात्र बना हुआ है जो सम्भवतः गन्धोदक एकत्रित करनेके लिए होगा। इससे कुछ आगे बढ़नेपर सरोवरके तटपर कोलेश्वरी देवीका मन्दिर मिलता है। मन्दिरमें गर्भगृह और मण्डप है । मन्दिरके ऊपर छोटा-सा शिखर है । मन्दिर छोटा ही है। इसमें कोलेश्वरी देवीको मूर्ति विराजमान है । मूर्ति सवा दो फुट ऊँची है और चतुर्भुजी है। वह महिषपर खड़ी हुई है । उसके एक हाथमें खड्ग, दूसरेमें ढाल, तीसरेमें त्रिशूल और चौथेमें मछली है। इस मन्दिरको रचनाको ध्यानपूर्वक देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह मन्दिर मूलतः जैन मन्दिर था । इस मन्दिरमें चन्द्रप्रभ भगवान्की मूर्ति रही होगी। उस तीर्थंकर मूर्तिके साथ उनके सेवकसेविका श्याम यक्ष और ज्वालामालिनी यक्षिणीकी मूर्ति होगी। तीर्थंकर-मूति और यक्ष-मूर्ति कहाँ गयीं, यह ज्ञात.नहीं हो सका । सम्भवतः दोनों मूर्तियाँ खण्डित करके तालाबमें फेंक दी गयीं और केवल यक्षिणीकी मूर्तिको यहाँ रखा गया, जिसका नाम पर्वतकी अधिष्ठात्री देवीके रूप में कोलेश्वरी देवी नाम दे दिया गया। यह भी सम्भव है कि मन्दिरको तीर्थंकर मूर्तियोंको हटाकर कोलेश्वरी देवीकी मूर्ति कहींसे लाकर यहाँ विराजमान कर दी गयी। डॉ. एम. ए. स्टेनने स्पष्ट लिखा है, "यह एक दिगम्बर जैन तीर्थस्थान है तथा कोलेश्वरी देवीकी नवीन मूर्तिके अतिरिक्त पर्वतपर प्राप्त प्रत्येक पाषाण-रचना तथा पर्वतमें निर्मित प्रतिमाएं दिगम्बर जैन तीर्थंकरोंकी हैं।" वस्तुतः इस पर्वत पर जैन धर्मसे सम्बन्धित मन्दिरों और मूर्तियोंके अतिरिक्त अन्य किसी धर्मका कोई मन्दिर या मूर्ति नहीं थी। कोलेश्वरी देवीकी स्थापना और मान्यता अधिक प्राचीन नहीं है। जिस कालमें जैन लोग अपने इस तीर्थके प्रति उदासीन हो गये, उसी कालमें जैन मन्दिर में तीर्थंकर मूर्तियोंके स्थानपर कोलेश्वरी देवी आविर्भूत हुई। इस मन्दिरमें दर्शन करनेके लिए हिन्दू लोग आते रहते हैं। वसन्त पंचमी और आश्विन चैत्रके नवरात्रोंमें यहाँ हिन्दू यात्रियोंकी विशेष भीड़ होती है। पहले यहाँ देवीके सामने ८-१० हजार बकरोंकी बलि दी जाती थी। जैन समाज गयाने कई वर्ष तक इन मेलोंके अवसरपर कैम्प लगाकर जीव-हिंसाके विरुद्ध प्रचार किया, सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे लोगोंको समझाया। इससे लोगोंके मनमें जीव-हिंसाके प्रति घृणा उत्पन्न हुई, उन्हें बलि-प्रथाकी निस्सारताका अनुभव हुआ फलतः जीव-हिंसा बिलकुल बन्द हो गयी। अब तो कोई-कोई व्यक्ति देवीके सामने मनौती मनाते हुए बलि देनेका संकल्प ( भावना ) करता है, और पर्वतकी तलहटीमें बहनेवाली नदीके किनारे अथवा जंगलमें एकान्तमें यह कार्य करता है। ऐसी घटनाएँ भी अब नाममात्रको ही रह गयी हैं। कोलेश्वरी देवीके मन्दिरसे कुछ आगे जाकर ऊपर चढ़कर शिलाओंके कारण बनी हुई ४४ ३ फुटकी एक छोटी-सी प्राकृतिक गुफामें पार्श्वनाथ तीर्थकरको श्याम वर्ण पद्मासन मूर्ति रखी हुई है। मूर्तिकी अवगाहना-आसनको छोड़कर २ फुट है । मूर्तिके सिरपर नौ फणावली सुशोभित है। इनमें एक फण टूटा हुआ है। चरण-चौकीपर सर्पका लांछन अंकित है। मूर्ति अनुमानतः १२वीं शताब्दीकी है। गुफाके सामने पाषाणशिला रखी है। दोनोंके मध्य एक सँकरा मार्ग है। यह मूर्ति यहाँके किसी प्राचीन जैन मन्दिरकी है। पण्डोंने इसे यहाँ लाकर रख दिया है। हिन्दू लोग इसपर सिन्दूरका लेप करते हैं, जिससे यह विरूप हो गयी है तथा इसे 'द्वारपाल' के नामसेप्रसिद्ध कर रखा है । पाषाणशिलाके पीछे एक छोटी-सी प्राकृतिक गुफा बनी हुई है। यहाँसे सरोवरके किनारे होते हुए उसी मार्गसे वापस लौटते हैं जिस मार्गसे आये थे।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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