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________________ १७० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ गुफाकी खड़ी दीवालमें, जो पहाड़को काटकर बनायी गयी है, तीर्थंकरोंकी १० पद्मासन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । मूर्तियोंका आकार १० इंच है। प्रत्येक मूर्तिके नीचे उस तीर्थंकरका लांछन भी बना हुआ है। प्रत्येक मूर्तिके दोनों ओर चमरेन्द्र खड़े हुए हैं। यहाँ का पाषाण हलका पीला है। लांछनोंके अनुसार क्रमशः ( बायेंसे दायेंको ) (१) ऋषभदेव, (२) महावीर, (३) अजितनाथ, (४) सम्भवनाथ, (५) अभिनन्दननाथ, (६) सुमतिनाथ, (७) पद्मप्रभ, (८) सुपाश्वनाथ, (९) चन्द्रप्रभ और (१०) पुष्पदन्त तीर्थंकरोंकी ये प्रतिमाएँ हैं। प्रतिमाओंके ऊपर नागरी लिपिमें लेख भी उत्कीर्ण हैं जो काफी अस्पष्ट हैं। ___ इस पार्वत्य दीवालके शिरोभागपर विशाल आकारकी बेडौल शिलाएँ रखी हुई हैं। इस दीवालकी प्रतिमाओंके आगे पाँच फुट ऊँची शिला है। दोनोंके मध्य ढाई फुट चौड़ा मार्ग है जो एकदम चिकना और ढालू है। इसके ऊपर पैर कठिनाईसे जमते हैं। भ्रमवश हिन्दू लोग इन मूर्तियोंको दशावतार अथवा पाँच दातमक्त पाँच पाण्डवोंकी मूर्तियाँ कहते हैं। किन्तु आसन और चिह्नोंके कारण ये जैन तीर्थंकरोंकी प्रतिमा प्रमाणित होती हैं। __ इस दीवालसे आगे एक मोड़ आता है, जिसके बगलकी दीवालपर ५ पद्मासन और ५ खड्गासन जैन तीर्थंकर मूर्तियाँ बनी हुई हैं । इन सभी मूर्तियोंके दोनों ओर चमरवाहक खड़े हुए हैं तथा मूर्तियोंके नीचे तीर्थंकर-चिह्न हैं। पद्मासन मूर्तियाँ एक फुटकी तथा खड्गासन मूर्तियाँ सवा दो फुट अवगाहनाकी हैं। चमरवाहकोंको ऊँचाई पाँच इंच है। चिह्नोंके अनुसार पद्मासन प्रतिमाएं क्रमशः (१) शीतलनाथ, (२) श्रेयान्सनाथ, (३) वासुपूज्य, (४) विमलनाथ, (५) अनन्तनाथकी हैं । इसी प्रकार खड्गासन प्रतिमाएँ क्रमशः (१) वासुपूज्य, (२) मल्लिनाथ, (३) नेमिनाथ, (४) पार्श्वनाथ और (५) महावीर इन पंचबालयति तीर्थंकरोंकी हैं। इन मूर्तियोंके ऊपर ६ फुटी शिला छज्जेकी तरह छायी हुई है । इन्हें भी हिन्दू भूलसे पाँच पाण्डवोंकी मूर्तियाँ कहते हैं। इस गुहा मन्दिरसे निकलकर पगडण्डीसे इस पहाड़ीपर कुछ चढ़कर सामने ही पैंतीसचालीस फट ऊँची एक विशाल गोलाकार शिला दिखाई देती है। स्थानीय लोग इसे आकाशलोचन अथवा आकाश अवलोकन कहते हैं। यह एकदम सपाट चिकनी है। चढनेके लिए शिलामें एक. ओर बने हुए दो-तीन इंची कुछ गड्ढोंको छोड़कर अन्य कोई साधन नहीं है । इन गड्ढोंके सहारे चढ़ना खतरेसे खाली नहीं है। शिलाके शीर्ष भागपर चरण-चिह्न बने हुए हैं जो आठ इंच लम्बे और ३ इंच चौड़े हैं। इन प्राचीन चरण-चिह्नोंसे विश्वास होता है कि यहाँसे किन्हीं मुनिराजको निर्वाण प्राप्त हुआ था। उन्हींकी स्मतिमें इन चरण-चिह्नोंकी स्थापना की गयी। किन मनिराजोंने तपश्चरण कर यह मुक्ति प्राप्त की है, जैन शास्त्रोंसे यह ज्ञात नहीं हो सका। सम्भवतः इसका कारण यह हो कि कुलुहा यह नाम प्राचीन नहीं है, पहले इसका नाम कुछ और होगा। जैन शास्त्रोंमें कोल्लाग, कोल्लगिरि आदि नाम मिलते हैं जो इससे मिलते-जुलते हैं। अस्तु, इसका नाम प्राचीन कालमें कुछ भी रहा हो, किन्तु इस पर्वतपर बने हुए जैन मन्दिरों, मूर्तियों, प्राकृतिक गुफाओं एवं विजन एकान्त शान्ति, पर्वत और अरण्य इन सबको देखकर यह विश्वास होता है कि प्राचीन काल में इस पर्वतपर आकर मुनिजन तपस्या किया करते होंगे। यहाँसे उतरकर सीधा कोलेश्वरी देवीके मन्दिरको मार्ग गया है। इसी मार्गपर कुछ दूर नीचेको ओर चलनेपर एक गुफाके सामने गोलाकार शिलापर पाण्डुक शिला बनी हुई है।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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