________________
बिहार-बंगाल- उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
१६९
१६८२ बताया जाता है । मन्दिरके चारों ओर चबूतरा है तथा मन्दिरके सामने खुला मैदान और एक बड़ा चबूतरा है । सम्भवतः किसी प्राचीन जैन मन्दिरके अवशेषों को एकत्रित करके यह चबूतरा बना दिया गया है ।
इस मन्दिरके निकट लगभग ८० गज उत्तर-पूर्वमें ऊँचाईपर एक चौरस चट्टान है। इस चट्टान के ऊपर चारों दिशाओंमें आठ छेद हैं तथा मध्य में एक छेद है । ऐसा लगता है, ये छेद मण्डपके खम्भोंके लिए बनाये गये होंगे । मध्य में हवनकुण्ड - जैसा गड्ढा है । इन छेदों और गड्ढोंको देखकर सर्वसाधारणमें इसका नाम 'मढ़वा मढ़ई' प्रचलित हो गया है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ विवाह मण्डप बनाया जाता था और विवाह सम्पन्न होते थे । गड्ढे के पास नागरी लिपिमें तीन पंक्तियोंका एक शिलालेख है जो काफी घिस गया है। उसमें संवत् १३३स्पष्ट पढ़ने में आता है । इस कथित मण्डप - भूमिके निकट किसी प्रकोष्ठके भग्नावशेष पड़े हुए हैं । इसके सामने एक चबूतरा बना हुआ है।
किन्तु सूक्ष्म अवलोकन करनेपर 'मढ़वा मढ़ई' की मान्यता काल्पनिक जान पड़ती है । इससे मिली हुई भूमि से दुर्ग- प्राचीर जाती है । यह स्थान पर्याप्त ऊँचाईपर है । उपर्युक्त प्रकोष्ठ दुर्गा पर्यवेक्षण प्रकोष्ठ रहा होगा, जहाँ बैठकर प्रहरी सैनिक शत्रुकी गतिविधि का निरीक्षण करते होंगे ।
कुछ विद्वानों की धारणा इससे भिन्न । उनकी मान्यता है कि जब पार्श्वनाथ मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई थी, उस समय मन्दिर के सामने की भूमि समतल की गयी थी तथा धार्मिक विधि-विधान सम्पन्न करने के लिए प्रस्तुत शिला के ऊपर भूमिको समतल किया गया था । प्रकोष्ठ सामग्री रखने के लिए बनाया गया था तथा विधान मण्डप इस शिलातलपर बनाया गया था । ये छेद उसी मण्डप - के निमित्त बनाये गये थे । उक्त गड्ढा वस्तुतः हवनकुण्डके काम आया था अथवा इसी उद्देश्य से बनाया गया था । चबूतरा त्यागीजनों अथवा सम्मान्य दर्शकों के बैठने के लिए था ।
उक्त मान्यता तथ्यों के अधिक निकट और तर्कसंगत प्रतीत होती है । यदि इस मान्यताको स्वीकार कर लिया जाये तो पार्श्वनाथ जैन मन्दिरका निर्माण-काल १७वीं शताब्दी के स्थानपर १३-१४वीं शताब्दी स्वीकार करना होगा । अथवा यह भी सम्भव हो सकता है कि इस शिलाभूमिके ऊपर कोई जैन मन्दिर रहा हो। उसकी प्रतिष्ठा के समय यहाँ मण्डप बना हो । ऐसी दशा में चबूतरा और प्रकोष्ठ उसी मन्दिर के अवशेष हो सकते हैं ।
यहाँ जैन मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई, इस धारणाका समर्थन कोलेश्वरी देवीके मन्दिर के निकट बनी हुई पाण्डुक शिलासे भी होता है ।
इस शिलाकी रचनाको देखकर जैन बन्धु इसे कोटिशिला कहते हैं । कुछ बन्धु इस भूमिको समवसरण भूमि कहते हैं । इन मान्यताओंका आधार क्या है, यह अस्पष्ट है । कोटिशिला तो शास्त्रानुसार कलिंग देशमें थी । जहाँ तक दूसरी मान्यताका सम्बन्ध है, सम्भवतः यह कल्पना यहाँ की समतल भूमिको देखकर की गयी है । जैन वाङ्मयके अनुसार तीर्थंकरोंका समवसरण पृथ्वीतलपर नहीं, बल्कि आकाशमें देवों द्वारा निर्मित होता है । इसलिए समवसरण रचनाके लिए पृथ्वीका समतल होना कतई आवश्यक नहीं है । यही कारण है कि राजगृही आदिके पर्वत - जहाँ तीर्थंकर प्रभुका समवसरण अनेक बार लगा, समतल नहीं हैं ।
प्रस्तुत शिलासे नीचे उतरकर फिर कुछ चढ़ाई आती है । कुछ दूर चलनेपर खुली हुई
भाग २ - २२