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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
कुलहा पहाड़से बुद्धका कभी कोई सम्बन्ध रहा हो, ऐसा कोई उल्लेख बौद्ध साहित्य में उपलब्ध नहीं होता । न यहाँ बुद्ध से सम्बन्धित कोई मूर्ति, मन्दिर या स्तूप ही उपलब्ध हुए हैं ।
क्षेत्र-दर्शन
दन्तार गाँवसे १ मील चलनेपर पहाड़की चढ़ाई प्रारम्भ हो जाती है। यह चढ़ाई लगभग २ मील पड़ती है। सीढ़ियाँ तो नहीं बनी हैं किन्तु पगडण्डी अवश्य बनी हुई है । भक्त हिन्दू स्त्रियों पगडण्डी दोनों ओरकी शिलाओंपर पुत्रप्राप्तिके लिए सिन्दूर पोत दिया है । यद्यपि उन्होंने यह कार्यं भक्ति भावनासे किया होगा, किन्तु इसका लाभ यहाँ आनेवाले सभी यात्रियोंको मिलता है । सिन्दूर से चिह्नित शिलाएँ मार्ग दर्शिकाका काम करती हैं, इनके कारण यात्री मार्ग से भटक नहीं सकता।
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पहाड़पर चढ़नेपर कुछ दूर चलकर एक शिलाके नीचे एक देवीकी खण्डित मूर्ति रखी हुई है । इस मूर्तिका मुँह और बाँह खण्डित है । मस्तकके ऊपर खण्डित चक्र बना हुआ है तथा अधोभागमें एक ओर वृषभ बना हुआ है । देवीकी भुजाएँ खण्डित होनेके कारण यह तो पता नहीं चलता कि देवी हाथों में क्या धारण किये हुए है। किन्तु चक्र और वृषभके कारण इस निर्णयपर पहुँचने में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती कि यह मूर्ति प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवकी यक्षिणी चक्रेश्वरी देवीकी है। चक्रेश्वरी देवीकी पहचान चक्रसे की जाती है तथा वृषभ आद्य तीर्थंकरका परिचायक चिह्न है ।
४०० फुट ऊपर चढ़नेपर पहाड़ी ईंटोंका एक ध्वस्त प्राकार और दक्षिण द्वार मिलता है । यह प्राकार ५३ एकड़ में फैला हुआ । द्वार भी बिलकुल ध्वस्त पड़ा हुआ है। द्वारपर द्वारपाल बना हुआ है। एक गोमुखाकार पाषाण शिलाको ही द्वारपालकी संज्ञा दे दी गयी है । इस प्रकार जियों और कंगूरोंके चिह्न भी मिलते हैं। इस प्राकारको चारों ओर घूमकर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक दुर्गं होगा । किन्हीं अज्ञात सदियोंमें इस तीर्थ की ख्याति चारों ओर थी । आततायियों और धर्मद्वेषी व्यक्तियोंसे इस तीर्थ के मन्दिरों और मूर्तियोंकी सुरक्षा के लिए देवगढ़ के समान यहाँपर भी दुर्गंकी रचना की गयी होगी । सम्भवतः यह दुर्गं लम्बे काल तक अपने उद्देश्यमें सफल भी रहा हो । किन्तु कालके क्रूर प्रहारोंने न इस दुर्गको छोड़ा, न मन्दिरोंपर दया की। सभी नष्ट हो गये । केवल कुछ मूर्तियाँ अबतक सुरक्षित हैं ।
कुछ आगे चलनेपर बायीं ओर एक विशाल पद्म सरोवर बना हुआ है । यह ३०० गज लम्बा, ६० गज चौड़ा और ३० फुट गहरा है । इस सरोवरके सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि इस सरोवर में आद्य शंकराचार्यके कालमें अनेक जैन स्मारकों और मूर्तियों को डुबो दिया गया था । यह भी कहा जाता है कि इस सरोवरमें अनेक खण्डित और अखण्डित जैन मूर्तियाँ पड़ी हुई हैं। ये सब बातें कहाँ तक सत्य हैं, यह नहीं कहा जा सकता ।
दायीं ओर कुछ ऊँचाई पर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर है । मन्दिर छोटा ही है और शिखरबन्द है । इसमें केवल गर्भगृह है जो पौने नौ फुट लम्बा और पौने आठ फुट चौड़ा है । वेदीके स्थानपर दीवालमें ही भगवान् पार्श्वनाथकी सलेटी वर्णकी बाईस इंची पद्मासन प्रतिमा प्लास्टर से जड़ी हुई है । मूर्ति के ऊपर सर्प-फण है। मूर्ति काफी प्राचीन है और काफी घिस चुकी है। मूर्तिपर लेख और श्रीवत्स नहीं है। मूर्तिकी रचना शैलीसे यह ईसाकी दूसरी-तीसरी शताब्दीकी प्रतीत होती है । यह सामनेवाले पद्म सरोवर में मिली थी। ऐसा लगता है, सुरक्षाकी दृष्टिसे ही प्लास्टर द्वारा इसे दीवालमें जड़ दिया गया है। इस मन्दिरके निर्माणका काल वि. सं.