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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
की, यह बताना भी कठिन है । वास्तवमें जहाँसे तीर्थंकर मोक्ष पधारे, उस स्थानको इन्द्रने चिह्नित कर दिया। उन्हीं स्थानोंपर टोंक और चरण बना दिये गये। यह भी कहा जाता है कि सम्राट श्रेणिकने जीर्ण टोंकोंके स्थानपर भव्य टोंकोंका निर्माण कराया था। बादमें समय-समयपर भक्तोंने इन टोकोंका जीर्णोद्धार कराया अथवा उनके स्थानपर नवीन टोंक बनवा दी गयी। यही बात चरणोंके सम्बन्धमें है। वर्तमान चरणोंपर जो लेख खुदे हुए हैं, उनका तात्पर्य इतना ही है कि अमक व्यक्तिने प्राचीन चरणोंका जीर्णोद्धार किया अथवा प्राचीन चरणोंके स्थानपर नवीन चरण स्थापित कराये।
हमारी मान्यता है कि प्राचीन चरणोंके स्थानपर नवीन चरण स्थापित करके अथवा चरणोंपर लेख उत्कीर्ण कराके दाताओंने कुछ पुण्यका कार्य नहीं किया। उन्होंने उनकी प्राचीनता को मिटाकर इतिहास और पुरातत्त्वके साथ न्याय नहीं किया है। आज इन पुण्यलुब्ध दानी सज्जनोंके अतिशय उत्साहके कारण इस अनाद्यनिधन तीर्थराजपर प्राचीनताका कोई चिह्न तक नहीं बच पाया है। यहाँ सारे चरणों और टोंकोंका आधुनिकीकरण कर दिया गया है । दूसरी ओर राजगृहीमें अबतक प्राचीन चरण और मूर्तियाँ मिलती हैं जो लगभग दो डेढ़ हजार वर्षतक प्राचीन हैं। शिखरजीपर शिकार वजित
जैन समाजकी अहिंसक भावनाके कारण सरकारकी ओरसे इस पर्वतपर किसी प्रकारका शिकार करना वजित कर दिया गया है और उसकी सूचना एक शिलापट्टपर लगा दी गयी है । जैन लोग इस तीर्थकी पवित्रताको अक्षुण्ण रखनेका पूर्ण प्रयत्न करते रहे हैं।
सन् १८५९ से १८६२ तक इस पहाड़पर ब्रिटिश सेनाओंके लिए एक सैनीटोरियम बनानेके लिए सरकारकी ओरसे जाँच होती रही थी। किन्तु सैनिकोंके रहनेसे यहाँ मांस पकाया जायेगा, इस आशंकासे जैन समाजने जबरदस्त विरोध किया और वह विचार छोड़ दिया गया।
शिखरजीका पहाड़ कई पीढ़ियोंसे पालगंजके जमींदारके अधिकारमें चला आ रहा था। उक्त घरानेके सभी लोग दिगम्बर जैन धर्मके अनुयायी थे । यहाँ तक कि दर्शन-पूजाके लिए उन्होंने अपने यहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर भी बनवाया था जो अभी भी पालगंजमें विद्यमान है। उसकी प्रतिष्ठा श्री १०५ धर्मदासजी द्वारा वि. सं. १९३९ में हुई थी। वे शिखरजीकी रक्षा भी धर्मपूर्वक किया करते थे। लेकिन दुर्भाग्यवश कर्मचारियोंकी अयोग्यतासे जमींदार कर्जदार हो गये। उस अवसरपर दिगम्बर समाजकी ओरसे उन्हें बतौर कर्जा हजारों रुपये दिये गये। फिर भी उनकी स्टेट इनकमवर्ड हो गयी। उस समय इस इलाकेके डिप्टी कमिश्नर मि. केणी थे। उन्होंने शिखरजी पहाड़की मनोरमता और स्काटलैण्डकी पहाड़ियों-जैसी प्राकृतिक सुषमा देखकर ही उस समय अंगरेजोंके लिए एक सैनीटोरियम बनानेका विचार किया था। बादमें विरोध होनेपर वह विचार स्थगित कर दिया गया था। यात्रासे वापसी
भगवान् पार्श्वनाथकी टोंकसे वापस लौटते समय विशेष कठिनाई नहीं होती। क्योंकि उतराई है और मार्ग ठीक है। बीच-बीचमें जंगल में पगडण्डियाँ भी जाती हैं। यदि उनपर चला जाय तो लगभग डेढ़ मीलको यात्रा बच जाती है। किन्तु पगडण्डियोंपर चलना बहुत कठिन है। रास्ता भूलनेका भी डर है। यदि मील ( मजदूर ) साथ हो तो फिर कोई डर नहीं। इस समय लाठीसे बड़ी सहायता मिलती है ।