________________
१५९
बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ धर्मशाला बनी हुई है। इधरसे जानेपर पर्वतकी वन्दना उलटी पड़ती है और सबसे पहले पार्श्वनाथ टोंक पड़ती है।
नीमियाघाटकी ओरसे सम्मेदशिखरकी यात्रा करनेमें ६ मीलकी चढ़ाई पड़ती है। ऊपर टोंकोंकी वन्दना ६ मील और वापसी ६ मील । चढ़ाईमें १ मील तो मोटरसे जाने योग्य मार्ग है, शेष ५ मील पैदल यात्रा करनी होती है।
नीमियाघाटकी दिगम्बर जैन धर्मशाला और मन्दिर बीसपन्थी कोठीके अन्तर्गत है। न्दिरकी व्यवस्था स्व. सखीचन्दजीके सपत्र श्री महावीर प्रसादजी करते हैं। पालगंजका दिगम्बर जैन मन्दिर भी बीसपन्थी कोठीके अन्तर्गत है। इसका जीर्णोद्धार लगभग १०० वर्ष पहले क्षुल्लक धर्मचन्द्रजीने कराया था। पहले सम्मेदशिखरकी यात्राके लिए यात्री पालगंज होकर आते थे और पालगंजके राजासे सुफल बुलवाकर उसे भेंट देते थे। जब पालगंजके राजाका अभिषेक होता था, उस समय दिगम्बर जैन प्रतिमा वहाँ विराजमान करके उसका अभिषेक होता था। इस गन्धोदकको छिड़ककर राजाकी शुद्धि की जाती थी।
मधुवनकी ओरसे भी कुल मिलाकर १८ मीलकी यात्रा पड़ती है। किन्तु अधिकांश यात्री मधुवनकी ओरसे ही यात्रा करते हैं। इधरसे यात्रा करने में कई सुविधाएँ हैं। सबसे बड़ी सुविधा तो यह है कि इधर अन्य अनेक यात्रियोंका साथ मिल जाता है और इतनी लम्बी यात्रा अन्य साथियोंके कारण सुगम बन जाती है, इसके विपरीत नीमिया घाटकी ओरसे यात्रा करनेमें यात्रीको प्रायः अकेले ही चढ़ना-उतरना पड़ता है। इससे यात्रा दुरूह मालूम पड़ने लगती है।
१८ मोलकी यह लम्बी यात्रा किशोर, युवक, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी कहीं सीढ़ियोंके द्वारा, कहीं कंकरीली-पथरीली राहसे तीर्थंकरोंका जय-घोष करते, स्तुति-विनती पढ़ते आनन्दपूर्वक कर लेते हैं। साँस फूल जाती है किन्तु मनमें क्षण-भरको भी खिन्नताके भाव नहीं आते। बल्कि अपनी धार्मिक श्रद्धा, उल्लास, उत्साह और प्रकृतिकी अनिन्द्य सुषमामें विभोर होकर यात्री यात्रा पूरी करके जब वापस अपने डेरेपर लौटता है तो उसे अनुभव होता है कि भगवान्की भक्तिमें अद्भुत शक्ति है, वरना इतनी लम्बी यात्रा कैसे सम्भव थी। यात्रा सम्बन्धी आवश्यक सूचनाएँ
यात्राके लिए रात्रिके दो बजे उठकर शौच और स्नानसे निवृत्त होकर तीन बजे चल देना चाहिए। स्नानके लिए दोनों कोठियोंमें गर्म पानीको व्यवस्था रहती है। यदि शौच न जा सकें तो मार्गमें गन्धर्व नालेपर आकर शौच, स्नानसे निवृत्त हो लेना चाहिए । यात्राके लिए सर्दीका मौसम ही उपयुक्त रहता है । ग्रीष्म ऋतुमें गर्मीके कारण यात्रा करना कठिन होता है और बरसातमें सब जगह हरियाली, जीवोंकी उत्पत्ति और फिसलन हो जाती है। यात्राके समय धोती, बनियान और दुपट्टा ये वस्त्र धारण करना चाहिए । अधिक वस्त्र धारण करनेसे यात्रामें कष्ट होता है। कुछ दूर चलनेपर शरीरमें गर्मी आ जाती है और लौटते समय धूप असह्य मालूम पड़ने लगती है। इसलिए अधिक वस्त्र पहननेसे बड़ी असुविधा प्रतीत होने लगती है। छोटे बच्चोंके लिए भील ( मजदूर ) साथमें ले लेना चाहिए जो धर्मशालामें मिल जाते हैं । वृद्ध और अशक्त पुरुष और महिलाएँ डोली कर सकती हैं। अन्य लोगोंको लाठी ले लेनी चाहिए। उससे पर्वत चढने-उतरने में बडो सहायता मिलती है। धर्मशालाओंमें इन सब चीजोंकी व्यवस्था रहती है । लालटेन लेनेसे चढ़ते समय बड़ी सुविधा रहती है।
इस तीर्थराजकी वन्दनाके लिए जाते समय न केवल शरीर और वस्त्र आदिकी बाह्य शुद्धि ही आवश्यक है, अपितु मन और वाणीकी पवित्रता भी आवश्यक है।