________________
बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ गिरीडीहसे मधुवन पचीस कि. मी. है। गिरीडीह-ईसरी रोडपर बसें बराबर मिलती हैं।
मधुवनमें तेरापन्थी और बीसपन्थी दो कोठियाँ अर्थात् धर्मशालाएँ हैं। तेरापन्थी कोठी मधुवन और ईसरीका प्रबन्ध बंगाल-बिहार-उड़ीसा दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीके अधीन है। इसका प्रधान कार्यालय कलकत्तामें है । इसी प्रकार बीसपन्थी कोठी मधुवन और ईसरीकी व्यवस्था एक ट्रस्ट (१० ट्रस्टियों ) के अधीन है।
श्री सम्मेदशिखर पर्वतकी तलहटीमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी धर्मशालाएँ और मन्दिर हैं। सबसे पहले दिगम्बर जैन तेरापन्थी कोठी मिलती है। फिर श्वेताम्बर कोठी, जो मझली कोठी कहलाती है और सबसे अन्तमें दिगम्बर जैन बीसपन्थी कोठी है। यह उपरैली कोठी कहलाती है। बोसपन्थी कोठी
इन तीनों कोठियोंमें बीसपन्थी कोठी सबसे प्राचीन है। इसकी स्थापना सम्मेदशिखरकी यात्रार्थ आनेवाले जैन बन्धुओं की सुविधाके लिए लगभग चार सौ वर्ष पूर्व की गयी थी, ऐसा कहा जाता है।
यह कोठी ग्वालियर गादीके भट्टारकजीके अधीन थी। इस शाखाके भट्टारक महेन्द्रभूषणने शिखरजीपर एक कोठी और एक मन्दिरको स्थापना की और मन्दिरमें पार्श्वनाथ स्वामीकी प्रतिमा विराजमान करायी। उन्होंने एक धर्मशाला भी बनवायी। समाजके दो दानी सज्जनोंने दो मन्दिर भी बनवाये। महेन्द्रभूषणके पश्चात् शतेन्द्रभूषण, राजेन्द्रभूषण, शिलेन्द्रभूषण और शतेन्द्रभूषण भट्टारक क्रमसे कोठीके अधिकारी हुए। ये भट्टारक अपने कारकुनोंके द्वारा यहाँकी व्यवस्था कराते थे। कोठी और मन्दिरकी अव्यवस्था देखकर भट्टारक राजेन्द्रभूषणने दिनांक १५४-१८७४ को एक इकरारनामा लिखकर आरा के १३ सज्जनोंको ट्रस्टी मुकर्रर कर यहाँका प्रबन्ध सौंप दिया। कालके प्रभावसे इनमें से १२ ट्रस्टियोंका स्वर्गवास हो गया और जो एक ट्रस्टी बच गये थे, वे कोर्ट द्वारा इन्सौल्वैण्ट करार दे दिये गये। मन्दिर में भारी अव्यवस्था हो गयी। तब २१ मई १९०३ को भट्टारक शतेन्द्रभूषणने दूसरा इकरारनामा रजिस्टर्ड कराया। उसके द्वारा आराके ही १५ सज्जनोंको ट्रस्टी बनाया।
इन इकरारनामोंसे ज्ञात होता है कि उस समय ग्वालियर गादीके अधीन ग्वालियर, हंडमूरीपुर, भटसूर, सोनागिर, पटना, सम्मेदशिखर, आरा, गिरीडीह आदि कई स्थानोंपर मन्दिर
और धर्मशालाएँ एवं उनकी गादियाँ थीं। उस समय उपरैली कोठीके अधीन सम्मेदशिखरके इन मन्दिर, धर्मशालाओंके अतिरिक्त गिरीडीहका मन्दिर और धर्मशाला भी थी तथा कुकों और वेन्द नामक दो गाँव थे। कोठीमें हाथी, घोड़े आदि रहते थे।
कोठीकी जायदाद, हिसाब-किताब और इकरारनामेकी वैधताको लेकर बम्बईके कुछ भाइयों ( भा. दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटीकी ओरसे ) आराके इन ट्रस्टियोंपर मुकदमा दायर कर दिया। उसमें राँची कोर्टसे दिनांक ११-१-१९०४ को कोठीपर रिसीवर बैठानेका हुक्म हो गया। फलतः रिसीवर बैठ गया। तब नागपुरमें बैठकर आरा और बम्बईवालोंमें समझौता हुआ और वह सुलहनामा कोर्ट में पेश किया। फलतः दिनांक ९-५-१९०६ से उसका प्रबन्ध ( मुकदमा नं. १, सन् १९०३ ) के चुन्नीलाल जवेरी वगैरह मुद्दई बनाम भट्टारक श्री शतेन्द्रभूषण वगैरह मुद्दालय