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भारतके दिगम्बर जैन तोर्थ
सिद सत्तमीपदीसे सावणमासम्मि जम्मणक्खत्ते।
सम्मेदे पासजिणो छत्तीसजुदो गदो मोक्खं ॥ -पार्श्वनाथ जिनेन्द्र श्रावण मासमें शुक्ल पक्षकी सप्तमीको प्रदोष कालमें अपने जन्मनक्षत्रके रहते छत्तीस मुनियोंके साथ सम्मेदशिखरसे मुक्त हुए।
इसी प्रकार आचार्य गुणभद्रने 'उत्तर पुराण'में, आचार्य रविषेणने 'पद्म पुरोग में, आचार्य जिनसेनने 'हरिवंश पुराण में तथा अन्य अनेक शास्त्रोंमें सम्मेदशिखरको बीस तीर्थंकरों और असंख्य मुनियोंकी निर्वाण-भूमि बताया है। 'मंगलाष्टक' में भी चार तीर्थंकरोंकी निर्वाण-भूमियोंका उल्लेख करके शेष बीस तीर्थंकरोंकी निर्वाण-भूमिके रूपमें सम्मेद शैलको मंगलकारी माना है। जटासिंहनन्दीने 'वरांगचरित्र में लिखा है
___ "शेषा जिनेन्द्रास्तपसः प्रभावाद् विधूय कर्माणि पुरातनानि ।
· धीराः परां निर्वृतिमभ्युपेताः सम्मेदशैलोपवनान्तरेषु ॥२७।९२॥ संस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंके अतिरिक्त अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओंके कवियोंने भी सम्मेदशिखरको तीर्थक्षेत्र माना है और उसे बोस तीर्थंकरों एवं अनेक मुनियोंकी सिद्ध भूमि माना है।
मराठी भाषाके सुप्रसिद्ध कवि गुणकीर्ति ( अनुमानतः १५वीं शताब्दीका अन्तिम चरण ) अपने गद्य ग्रन्थ 'धर्मामृत' ( परिच्छेद १६७ )में लिखते हैं__"संमेद महागिरि पर्वति बीस तीर्थंकर अहूठ कोडि मुनिस्वरु सिद्धि पावले त्या सिद्ध क्षेत्रासि नमस्कार माझा।"
अपभ्रंश भाषाके कवि उदयकीति ( १२-१३वीं शताब्दी ) ने 'तीर्थं वन्दना' नामक अपनी लघ रचनामें सम्मेदशिखरके सम्बन्धमें निम्नलिखित उल्लेख किया है
'सम्मेद महागिरि सिद्ध जे वि । हउँ वंदउँ बीस जिणंद ते वि।'
गुजराती भाषाके कवि मेघराज ( समय १६वीं शताब्दी) ने विभिन्न तीर्थों की वन्दनाके प्रसंगमें सम्मेदशिखरको वन्दनामें निम्नलिखित पद्य बनाया है-- .
चलि जिनवर जे बोस सिद्ध हवा स्वामी संमेद गिरीए।
सुरनर करे तिहा जात्र पूज रचे बड़भाव धरीए । भट्टारक अभयनन्दि ( सूरत ) के शिष्य सुमतिसागर ( समय १६वीं शताब्दीके मध्यमें ) ने 'तीर्थजयमाला'में लिखा है
"सुसंमेदाचल पूजो संत । सुबीस जिनेश्वर मुक्ति वसंत ॥" नन्दीतटगच्छ, काष्ठासंघके भट्टारक श्रोभूषणके शिष्य ज्ञानसागर (समय १५७८-१६२०) ने गुजरातीमें 'सर्वतीर्थ-वन्दना' लिखी है। इसमें कुल १०१ छप्पय हैं। इनमें तीन छप्पयमें सम्मेद गिरिकी वन्दना और प्रशंसा अत्यन्त भावपूर्ण शब्दोंमें की है । यहाँ उनमें-से एक पद्यका रसास्वाद कराया जा रहा है
१. उत्तर पुराण ४८१५१-५३, ४९।५५-५६, ५०६५-६६, ५११८४-८५, ५२।६६-६७, ५३।५२-५३, ५४।२६९-२७२, ५५।५२-५९, ५६।५६-५८, ५७।६०-६२, ५९।५४-५६, ६०१४४-४५, ६११५१-५२, ६३।४९६-९७, ६४।५१-५२, ६५।४५-४६, ६६।६१-६२, ६७।५५-५६, ६९।६७-६८, ७३।१५६-५८ । २. पद्मपुराण ५।२४६, २०१६१, २११४३-४५ । ३. हरिवंश पुराण, सर्ग ६०, श्लोक संख्या १८३ से २०४ तक, १६७५ ।