________________
बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
१३९ लिए 'केशी-गौतम संवाद'-जैसी अनर्गल कथाओंका सोच-समझकर सृजन किया गया। फिर इनका ध्यान भगवानोंकी ओर गया। जब साधुओंको लज्जा, भय, शीत, दंश-मशक आदिसे त्राण मिल गया, वस्त्र और पात्रोंकी सीमा भी समाप्त हो गयी, सुई-धागा रखने, वस्त्र धोने आदि की आज्ञा मिल गयी तो इन्होंने वीतराग भगवानोंके लिए भोजन करनेकी छूट दे दी, त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरोंके योग-क्षेमके लिए उन्हें त्याग ( दिगम्बरत्व ) की उपाधिसे मुक्ति देकर भोग ( वस्त्रालंकार ) के लिए स्वर्ण-रत्न मण्डित कर दिया।
श्वेताम्बर परम्पराके आगम ग्रन्थोंकी शैली, तीन वाचनाएं और दिगम्बरत्वका त्याग कर एक वस्त्रखण्डसे प्रारम्भ किये गये शिथिलाचारकी परिणति साधुके लिए असीम सुविधाओंकी प्राप्तिमें होना ये सब घटनाएँ बौद्ध परम्परासे जितनी मिलती हैं, वे आकस्मिक संयोग नहीं कही जा सकती। ____ यहाँ हमें सुविधाके लिए बौद्ध धर्मकी संगीतियोंपर एक दृष्टि डाल लेना रुचिकर होगा। बुद्धके निर्वाणके बाद उनके शिष्योंने उसी वर्ष राजगृहमें ( सप्तपर्णी गुफामें ) एकत्र हो 'धर्म' और 'विनय' का संगायन किया। इसीको प्रथम संगीति कहा जाता है। प्रथम संगीतिके सौ वर्ष बाद वैशालीमें फिर भिक्षु संघने एकत्रित होकर संगायन किया। इसको द्वितीय संगीति कहा जाता है। कितने ही भिक्षु इस संगीतिसे सहमत नहीं हुए और उन्होंने अपने संघका कौशाम्बीमें प्रथम सम्मेलन किया। संघके स्थविरोंका अनुगमन करनेवाला होनेसे पहला समुदाय आर्यस्थविर या स्थविरवादके नामसे प्रसिद्ध हुआ और दूसरा महासांघिक। इनमें भी भेद-प्रभेद हो गये। आर्यस्थविरवादसे ११ और महासांघिकसे ७ निकाय फूटे। फिर बुद्ध-निर्वाणसे सवा दो सौ वर्ष बाद सम्राट अशोकके शासन कालमें आर्यस्थविरोंके संघ-स्थविर मोग्गलिपुत्त तिस्सने पाटलिपुत्रके अशोकाराममें १००० भिक्षुओंका सम्मेलन करके धर्म और विनयका संगायन किया। यही तृतीय संगीतिके नामसे प्रसिद्ध हुआ। इसी समय आर्यस्थविरोंसे निकले सर्वास्तिवाद आदि ग्यारह निकायोंने नालन्दामें अपनी पृथक् संगीति की। ईसाकी प्रथम शताब्दीमें लंकामें सूत्र, विनय और अभिधर्म ये तीनों पिटक लेखबद्ध किये गये। ये ही आजकल पाली त्रिपिटक कहलाते हैं। धीरे-धीरे समयके अनुसार सुविधाओंकी लालसा बढ़ने लगी और सुविधाएँ बुद्धके नामपर, उनके उपदेश और सिद्धान्तोंके नामपर ही जुटायी जा सकती थीं, तभी जनताका समर्थन मिल सकता था। पहले बौद्ध धर्म महायान और हीनयान इन दो सम्प्रदायोंमें विभक्त हुआ था। फिर वज्रयान निकला, जिसे सहजयान भी कहा जाता है।
बुद्धने प्रारम्भमें अपने भिक्षुओंके लिए मार्गमें फेंके गये चिथड़े धारण करनेकी आज्ञा दी थी। सब पांसुकूलिक (चिथड़ेधारी ) ही रहते थे। अट्ठकथामें लिखा है कि बुद्धके बुद्धत्व-प्राप्तिके बीस वर्ष तक किसीने गृहपति चीवर धारण नहीं किया। किन्तु जीवक कौमार भृत्यकी प्रार्थनापर हो बुद्धने गृहपति चीवर और कम्बलकी आज्ञा दी थी। फिर तो चीवरोंकी बाढ़ आ गयी। संग्रहवृत्ति बढ़ने लगी। विहारोंमें चीवरोंके भण्डार बन गये। फिर तो वेषके अतिरिक्त और कोई अन्तर भिक्षु और गृहस्थोंमें नहीं रह गया।
लगता है, बौद्ध धर्मकी इन घटनाओंका प्रभाव श्वेताम्बर सम्प्रदायपर भी पड़ा । प्रारम्भमें दोनोंका कार्यक्षेत्र भी प्रायः समान हो रहा-पाटलिपुत्र, मथुरा, उज्जयिनी। फिर दोनोंकी स्थितियाँ भी प्रायः मिलती-जुलती थीं। बुद्ध भी पहले नग्न दिगम्बर मुनि थे। किन्तु दिगम्बरत्वके कष्टोंसे ऊबकर ही उन्होंने वस्त्र धारण किये थे। स्थूलभद्र और उनके संगी साथी साधु भी पहले भगवान् महावीरकी दिगम्बर परम्पराके ही साधु थे। परिस्थितिवश उन्हें वस्त्र धारण करने पड़े।