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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
इसके लिए उन्होंने प्राचीन अंगोंका नाम रखकर नवीन शास्त्रोंकी रचना की । देवमूर्तियोंको भी, जो नग्न ही बनती थीं, ( क्योंकि सभी प्राचीन जैन मूर्तियाँ नग्न ही मिलती हैं ) पहले वस्त्रके चिह्न ( कंडोरा ) से रूप परिवर्तन किया गया। इस तरह परिवर्तनकी यह प्रक्रिया विकसित होते-होते इस सीमा तक जा पहुँची कि निर्ग्रन्थ कही जानेवाली वीतराग मूर्तियों के ऊपर राजसी वस्त्राभूषण - किरीट, कुण्डल, हार, केयूर आदिका परिग्रह एकत्रित हो गया ।
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इतिहास और श्वेताम्बर आगमोंके अनुसार भी 'श्वेताम्बर' इस शब्दका प्रयोग छठी शताब्दीके बादसे ही आरम्भ हुआ । इससे पहले इस शब्दका प्रयोग करने में कुछ हिचक प्रतीत होती रही, ऐसा लगता है । इस शब्दका जैन धर्मंके साथ प्रयोग होते ही भगवान् ऋषभदेव के कालसे लेकर चली आ रही अखण्ड जैन परम्परा खण्डित हो गयी । जैन धर्म, जैन साहित्य, जैन चैत्य और जैन चैत्यालयको जानने-समझने के लिए उनके साथ विशेषण लगाना अनिवार्य हो गया ।
पाटलिपुत्र- वाचनाके पश्चात् श्वेताम्बरोंकी द्वितीय वाचना महावीर निर्वाण सं. ८४० में स्कन्दिलाचार्यको अध्यक्षतामें मथुरा में हुई । कुछ श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे यह भी सूचना मिलती है कि माथुरी-वाचनाके समय में ही वलभी में भी नागार्जुन सूरिकी अध्यक्षता में एक वाचना हुई थी । किन्तु इन तीनों वाचनाओंमें जो कुछ जिसे स्मरण था, वह मौखिक संकलन कर लिया गया, किन्तु उसे पुस्तकारूढ़ नहीं किया गया। फिर वीर नि. सं. ९८० में वलभीमें देवद्ध गणि क्षमाश्रमणने बचे हुए सब साधुओं को वलभीमें बुलाया और उनके मुखसे विच्छिन्न होनेसे अवशिष्ट रहे कमती - बढ़ती, त्रुटित अत्रुटित आगम पाठोंको अपनी बुद्धिके क्रमानुसार संकलित करके पुस्तकारूढ़ किया । इस तरह यद्यपि मूल सूत्र गणधरों के द्वारा गूँथे गये थे, तथापि देवद्धिके द्वारा पुनः संकलित किये जानेसे देवद्ध गणि क्षमा श्रमण ही सब आगमोंके कर्ता हुए ।
वस्तुतः वीर नि. सं. ९८० में श्वेताम्बर आगमों का निर्माण हुआ था और इसके कर्तादेवगण थे । इस कार्य में अन्य साधुओंसे भी सहायता ली गयी थी ।
इस प्रकार पाटलिपुत्र में आपत्ति कालमें अपवाद मार्गके रूपमें जिस वस्त्र और पात्रको कुछ साधुओंने स्वीकार किया था, वलभीके सम्मेलनमें उसे उत्सर्ग मार्ग घोषित कर दिया और श्वेताम्बर मर्त या सम्प्रदायका भवन खड़ा कर दिया। इन वाचनाओंके समय ही आपत्ति कालके समय ग्रहण किये गये वस्त्र खण्ड सम्बन्धी शिथिलाचारको सार्वकालिक और जैन परम्परामान्य सिद्ध करने के लिए बड़े भारी उलटफेर करने पड़े । मसलन जब वे वस्त्र सम्बन्धी सुविधाके अभ्यस्त हो गये तो यह भी मानना लाजिमी था कि वस्त्रकी सुविधा भोगते हुए भी मुक्ति होती है । जब सवस्त्र मुनिको मुक्ति हो सकती है तो बेचारी आर्यिकाने ही क्या कसूर किया है कि उसे मुक्ि वंचित रखा जाये | इसके लिए यह भी आवश्यक हो गया कि किसी तीर्थंकरको स्त्री बनाकर पेश किया जाये। बहुत सोच-विचारकर मल्लिनाथमें से नाथ तोड़कर कुमारी जोड़ दिया गया । किन्तु यह काम समझदारीका नहीं हो पाया, जब स्वयं ही यह अनुभव हुआ तो सारे तीर्थंकरोंके ऊपर इन्द्र द्वारा दिया हुआ वस्त्र ( देवदृष्य ) डालकर उन्हें प्रकारान्तरसे सवस्त्र सिद्ध करने की कोशिश । एक प्रयत्न यह भी हुआ कि महावीरको भले ही देवदृष्य वस्त्र अलग होनेपर नग्न स्वीकार करना पड़ा हो, किन्तु कमसे कम पूर्वके तीर्थंकरोंको सवस्त्र साबित कर दिया जाये। इसके
१. जिनदास महत्तर कृत नन्दिचूणि । २. मलयगिरि कृत ज्योतिष्करण्ड टीका, भद्रेश्वर कृत कथावली । ३. समयसुन्दर गणि कृत 'समाचारो शतक ।'