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________________ बिहार-बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं १३७ प्रमाण भी मिलते हैं। तमिल देश और कर्नाटक देशमें इसके पश्चाद्वर्ती कालमें अनेक प्रकाण्ड विद्वान् मूर्धन्य आचार्य हुए, जैन धर्मका जनसाधारण और राजकुलोंमें व्यापक प्रचार हुआ । इन सबसे यह सहज विश्वास हो जाता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु दक्षिण में गये । उनके साथ के साधुओं को श्रुतhah सान्निध्य और ज्ञानका लाभ बराबर मिलता रहा । इसके विपरीत परिशिष्ट पर्व तथा अन्य ग्रन्थोंकी इससे सम्बन्धित कथा इतिहास - विरुद्ध तो प्रतीत होती ही है, उसका सारा ढाँचा भी कल्पना प्रसूत लगता है । आगम-संकलन के लिए साधुओं का सम्मेलन हुआ किन्तु श्रुतकेवली उसमें नहीं गये । जब श्रुतकेवलीने आने में असमर्थता प्रकट की तो उन्हें संघबाह्य करनेकी धमकी दी गयी। क्या यह सम्भव नहीं हो सकता था कि साधु-सम्मेलनका आयोजन श्रुतकेवलीकी छत्रछायामें किया जाता । आखिर बादमें भी तो पाँच साधुओं को उनके पास भेजा गया । किन्तु साधु-चर्या के विरुद्ध सुविधाओं के वे इतने अभ्यस्त बन गये थे कि श्रुतवलीके पास ठहर नहीं पाये । केवल स्थूलभद्र ही वहाँ टिके । इस कहानीको कल्पनाका केवल एक ही उद्देश्य हो सकता था कि स्थूलभद्रको द्वादशांगका वेत्ता करार दिया जा सके, जिससे जैन धर्मकी मूल परम्पराके प्रति उनके विद्रोहकी उपेक्षा की जा सके। ये प्रयत्न अपने शिथिलाचार और उन्मार्गं प्रवृत्तिको धर्मसम्मत करार देने के लिए किये गये। किन्तु उस पाटलिपुत्र - सम्मेलनमें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी स्थापना घोषित नहीं की गयी । 'हम भी जैन हैं, हम भी महावीरके धर्मके अनुयायी हैं' बस इसके लिए ही दौड़धूप होती रही । सच तो यह है कि तपप्रधान धर्ममें सुविधाओं और आशाइशोंके अभिलाषी एक बार इनके अभ्यस्त होनेपर अधिक सुविधाओं और आशाइशोंका मार्ग तलाश करते हैं । प्रारम्भमें वस्त्रखण्ड या चोलपट्ट नग्नता ढँकनेके लिए रखा गया, वह भी भिक्षा के समय । शेष समय नग्न रहते थे । श्रावक के घरपर अनुद्दिष्ट आहारको त्याग कर उपाश्रयमें लाने और आहारके लिए पात्र रखने की छूट कर ली । कुत्ते भगानेके लिए एक दण्ड रखने की भी सुविधा मिल गयी । धीरे-धीरे सुविधाओंने पैर पसारना प्रारम्भ कर दिया। सर्दी मिटानेके लिए तीन वस्त्रोंका विधान हो गया, किन्तु शर्तके साथ कि शीत ऋतु समाप्त होनेपर वस्त्रोंका उपयोग नहीं किया जायेगा । इसी अनुपात में पात्र भी बढ़े। धीरे-धीरे अचेलक शब्दका भी अर्थं बदला। उसका अर्थ किया गया - ईषत् चेल अर्थात् थोड़े कपड़े। फिर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, वस्त्रों और पात्रोंकी सीमा और अन्य सुविधाएँ बढ़ती गयीं। फिर नग्नताका प्रश्न ही नहीं रहा, बल्कि नग्नताको जिनकल्पका चिह्न बताकर और पंचम कालमें जिनकल्पकी व्युच्छित्ति बताकर नग्न दिगम्बर वेषको महावीरकी आज्ञाके विपरीत वेष करार दे दिया । जिन्होंने जैन संघसे अलग होनेपर यह अपेक्षा की थी कि 'हमें भी महावीरका अनुयायी मान लिया जाये, हम भी अचेलक हैं' । वे अनेक ऊनी, सूती, रेशमी वस्त्रों, काष्ठपात्रों और अन्य जीवनोपयोगी सुविधाओंको जुटाकर कहने लगे कि 'हम ही जैन हैं, केवल मात्र हम ही महावीरके अनुयायी हैं । ' १. डॉ. हर्मन जैकोबीने इस वाचनाके बारेमें लिखा है कि- " पाटलिपुत्र नगर में जैन संघने जो अंग संकलित किये थे, वे केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही थे, समस्त जैन संघके नहीं थे क्योंकि उस जैन संघ में भद्रबाहु सम्मिलित नहीं थे ।” — Sacred Books of the East, Vol. 22, Introduction, p. 43 २. तित्थोगाली पइन्नय, गाथा ७३०-७३३ । भाग २- १८
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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