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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ संघने स्वीकार नहीं किया तो वे विभिन्न वेष और सम्प्रदायोंमें भटकते रहे किन्तु उनकी महत्त्वाकांक्षाको कहीं ठोस आधार न मिल पाया। तब एक दिन वे चिन्तामें बैठे हए इन परिस्थितियोंपर विचार कर रहे थे। उनके मन में एक निश्चयका प्रकाश कौंधा-"गौतम! तुझे अपने आपको बुद्ध घोषित करके अपना स्वतन्त्र मत, स्वतन्त्र सम्प्रदाय स्थापित करना है । तू किसी परम्परागत धर्म और सम्प्रदायका अनुगमन करनेके लिए पैदा नहीं हुआ।" यह विचार आते ही दृढ़ संकल्पके साथ उठे और उन्होंने अपना स्वतन्त्र मत प्रचारित किया। स्थूलभद्रके मनमें भी कुछ ऐसी ही भावना और बोध हुआ। वे जैन धर्मको त्याग तो नहीं सके किन्तु उन्होंने जैन धर्मके नामपर अपने आचार-विचारोंको प्रचारित करनेका संकल्प कर लिया। इसको वैधानिक रूप देनेके लिए उन्होंने 'पाटलिपुत्र' में अपने दलके साधुओंका सम्मेलन आयोजित किया। उसमें अपने दलको एक सम्प्रदायका रूप देनेका निश्चय किया गया और उसके लिए कुछ नियम भी स्थिर किये गये। सम्मेलनके इस कार्यको 'महावीर-वाणी'की 'प्रथम वाचना' यह संज्ञा दो गयी। इस सम्बन्धमें आचार्य हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर्वमें यह उल्लेख मिलता है इतश्च तस्मिन् दुष्काले कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहार्थं साधुसंघस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥९॥५५॥ अगुण्यमानं तु तदा साधूनां विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीयतामपि ॥९॥५६॥ सङ्घोऽथ पाटलीपुत्रे दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदङ्गाध्ययनोद्देशाद्यासीद्यस्य तदाददे ॥९।५७।। अर्थात् उस भीषण दुष्कालके समय साधु-संघ समुद्र-तटपर चला गया। पारायण न करनेके कारण साधुओंको शास्त्रोंका ज्ञान नहीं रहा। क्योंकि अभ्यास न करनेसे बड़े-बड़े विद्वान् भी पढ़ा हुआ भूल जाते हैं। तब दुष्काल समाप्त होनेपर सारा संघ पाटलिपुत्रमें मिला, जिससे जिसको अंगोंका जो ज्ञान हो, उसका अध्ययन किया जा सके। - इसी प्रकरणमें आगे बताया है कि "ग्यारह अंगोंका संकलन तो कर लिया। उस समय भद्रबाहु नेपाल देशके मार्ग में कहीं थे। उन्हें बुलानेके लिए दो मुनियोंको भेजा गया। किन्तु भद्रबाहुने कह दिया कि इस समय वह महाप्राण ध्यानका साधन कर रहे हैं। अतः आनेमें असमर्थ हैं। तब संघने फिर दो मुनियोंको भेजा और आदेश दिया, 'अगर तुम नहीं आओगे तो तुम्हें संघसे निकाल दिया जायेगा।' तब भद्रबाहुने उनसे कहा कि 'संघ कुछ बुद्धिमान् साधुओंको भेरे पास भेज दे। मैं उन्हें दिनमें नित्य सात बार दृष्टिवाद अंगका ज्ञान दूंगा।' संघने पाँच सौ साधु भेजे। किन्तु कुछ दिन बाद सब साधु वापस चले आये। केवल स्थूलभद्र वहाँ रह गये। उन्होंने आठ वर्ष तक आठ पूर्वोका अध्ययन किया और ध्यान साधना समाप्त होनेपर दो पूर्वोका ज्ञान लिया। इस प्रकार कुल दस पूर्वोका ज्ञान स्थूलभद्रको प्राप्त हुआ ।" इस कथाका कोई ऐतिहासिक आधार है, ऐसा प्रयत्न करनेपर भी ज्ञात नहीं हो सका। जबकि भद्रबाहु श्रुतकेवलीके दक्षिणमें जाने, सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा उनके पास दीक्षा लेने और श्रवणबेलगोलमें आचार्यके समाधिमरण लेनेके सम्बन्धमें अनेक शिलालेख मिलते हैं, ऐतिहासिक १. 'पाटलिपुत्र-वाचना' का वर्णन तित्थोगाली पइन्नामें मिलता है।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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