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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं १३४ संघ-भेद और पाटलिपुत्र जैन धर्म भगवान् महावीर के कालमें या उससे पहले किस नामसे पुकारा जाता था, इसका उत्तर हमें जैन, वैदिक और बौद्ध साहित्यका गहरा अध्ययन करनेपर मिल जाता है । प्रायः उसके लिए दो शब्दों का प्रयोग मिलता है— श्रमण और निर्ग्रन्थ । इन दोनों शब्दोंमें भी श्रमण शब्द प्राचीन है । वाल्मीकि रामायण और महाभारतमें श्रमण शब्दका अनेक स्थलों पर प्रयोग हुआ है। बौद्ध साहित्य में निग्गंठ (निर्ग्रन्थ) शब्द जैन और जैन धर्मके लिए प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध साहित्य में जैन धर्म के लिए श्रमण शब्दका प्रयोग न करनेका कारण स्पष्ट है । बौद्ध धर्म भी श्रमण कहलाता है । किन्तु वैदिक साहित्य में श्रमण शब्दका प्रयोग केवल जैन और जैन धर्मके लिए ही हुआ है क्योंकि उस कालमें बौद्ध धर्म था ही नहीं । वैदिक दार्शनिक ग्रन्थोंमें जैन धर्म के लिए एक तीसरा ही शब्द प्रयुक्त किया गया है। वह है आर्हत | श्रीमद्भागवतमें जैन शब्दका प्रयोग हुआ है | किन्तु इस ग्रन्थका रचना -काल सम्भवतः भगवान् महावीरके बांदका है । भगवान् महावीरके समयसे जैन और जैन धर्मका प्रयोग खुलकर होने लगा । आशय यह है कि जैन धर्मं चाहे जिस नामसे पुकारा जाता रहा हो, किन्तु उसके साथ भगवान् महावीर और उनके पश्चात् होनेवाले केवलियों तक कोई विशेषण ( जैसे दिगम्बर और श्वेताम्बर ) नहीं लगाया जाता था क्योंकि तबतक जैन धर्म एक और अखण्ड था और भगवान् ऋषभदेवसे लेकर एक रूपमें परम्परासे चला आ रहा था । किन्तु एक और अखण्ड जैन धर्मके दो खण्ड अन्तिम श्रुतवली भद्रबाहुके समय में या अवसानपर हुए, इस बातको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराएँ स्वीकार करती हैं । दिगम्बर परम्पराकी मान्यता है कि एक समय अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु संघ अपने सहित उज्जयिनी पधारे। वहाँ एक दिन वे एक गृहस्थके घरपर आहार लेनेवाले थे, तभी पालनेमें पड़ा एक बच्चा बोल उठा - "भद्रबाहु ! वापस जाओ ।" यह सुनते ही भद्रबाहु अन्तराय जानकर लौट आये। उन्होंने संघको इकट्ठा किया और बोले - " बारह वर्ष तक घोर दुर्भिक्ष पड़नेवाला है । अतः अपने-अपने संघोंके साथ सबको ऐसे देश में चला जाना चाहिए, जहाँ सुभिक्ष हो ।" बहुत-से साधुओं ने वहाँसे विहार कर दिया । आचार्य भद्रबाहु भी अपने १२००० शिष्योंके साथ विहार कर गये । उस समय मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त राजकार्य से उज्जयिनी आये थे। वे भी आचार्य हुए भद्रबाहु इतने प्रभावित हुए कि उनसे मुनि दीक्षा ले ली। उनका नाम विशाख रखा गया । वे भी भद्रबाहु के साथ चले गये। संघ विहार करता हुआ श्रवणबेलगोलकी चन्द्रगिरि पहाड़ी पर पहुँचा । वहाँसे आचार्य के आदेशानुसार अधिकांश संघ अन्य स्थानोंपर चला गया। मुनि विशाख अपने गुरुकी सेवामें रहे। वहीं गुरुने उन्हें सम्पूर्ण संघका आचार्यपद प्रदान किया और स्वयं वहीं पर एक गुफा में समाधिमरण ले लिया । विशाखाचार्य अन्त तक उनकी सेवा करते रहे । जब दुर्भिक्ष समाप्त हो गया तो संघके कुछ साधु दक्षिणमें ही रह गये और कुछ उत्तर भारतमें लौट आये । किन्तु वहाँ आकर उन्होंने देखा कि दुर्भिक्षके समय जो साधु इधर रह गये थे, वे जैन आचार-विचार में शिथिल हो गये हैं । वे वस्त्र भी धारण करने लगे हैं । उन निर्ग्रन्थोंने इन सग्रन्थ साधुओं को समझाया कि तीर्थंकरोंके मार्गके विरुद्ध आप लोगोंने यह स्वेच्छाचारिता किस कारण अपनायी है । भगवान् महावीरने तो जैन साधुके लिए निर्ग्रन्थ, नग्न रहना अनिवार्य १. श्रवणबेलगोलके शिलालेख | देवसेन कृत भावसंग्रह । भट्टारक रत्ननन्दि कृत भद्रबाहु चरित । हरिषेण कृत बृहत्कथाकोषं ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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