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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ अर्थात् मुनि चाणक्यने शुक्ल ध्यान ध्याते हुए सिद्ध गति प्राप्त की। ब्रह्मचारी नेमिदत्त कृत 'आराधना कथाकोष' में तो सभी पाँच सौ मुनियोंको मुक्ति प्राप्त हुई, ऐसा उल्लेख है ___तदा ते मुनयो धीराः शुक्लध्यानेन संस्थिताः । हत्वा कर्माणि निःशेषं प्राप्ताः सिद्धि जगद्धिताम् ॥७३॥४२॥ अर्थात् सभी मुनि शुक्लध्यानमें लीन होकर अशेष कर्मोको नष्ट करके सिद्ध हो गये । पाटलिपुत्रके सेठ जिनदासको कथा भी बहुत प्रचलित है । उनके सम्बन्धमें एक घटना इस प्रकार है । एक समय सेठ जिनदास अनेक व्यापारियोंके साथ पोत लेकर व्यापारके लिए स्वर्णद्वीप गया। जब जहाज जा रहा था, तब कालिकासुरने आकर कहा-"अगर तुम लोग यह कह दो कि जैन धर्म असत्य है, तब तुम आगे जा सकोगे, अन्यथा नहीं।" अन्य व्यापारी यह सुनकर आतंकित हो गये किन्तु श्रेष्ठी जिनदास सम्यग्दृष्टि था। वह भयभीत नहीं हुआ। उसने व्यापारियोंको समझाया और आश्वस्त किया। सबने भगवान् जिनेन्द्रदेवको नमस्कार किया । इतनेमें उत्तरकुरुकी ओरसे एक देवचक्र आया और उस असुरको उसने मार भगाया। ___ पाटलिपुत्रमें कभी पर्वतमें भूगर्भसे पुष्पदन्त भगवान्की प्रतिमा निकली थी। उस प्रतिमाकी बड़ी महिमा थी। १३वीं शताब्दीके विद्वान् यति मदनकीतिने इस प्रतिमाका उल्लेख 'शासन चतुस्त्रिशिका में बड़े आदरके साथ इस प्रकार किया है । पाताले परमादरेण परया भक्त्याचितो व्यन्तरैर्यो देवैरधिकं स तोषमगमत्कस्यापि पुंसः पुरा। भूभृन्मध्यतलादुपर्यनुगतः श्रीपुष्पदन्तः प्रभुः श्रीमत्पुष्पपुरे विभाति नगरे दिग्वाससां शासनम् ॥१२॥ अर्थात् जो पहले व्यन्तर देवोंके द्वारा पातालमें-अधोलोकमें बड़ी भक्तिसे पूजे गये, बादको पर्वतके मध्यतलसे ऊपर आनेपर किसी पुण्यात्मा पुरुषको बड़ा आनन्द हुआ और जो पुष्पपुर • (पाटलिपुत्र) में विराजमान हैं, वे श्री पुष्पदन्त भगवान् दिगम्बर शासनकी महिमा बढ़ावें । यतिजीके उल्लेखसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उक्त मूर्ति यतिजीके समयमें पाटलिपुत्र में विद्यमान थी। अब वह मूर्ति वहाँ है या नहीं, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। सागवाड़ा (सागपत्तन) के रहनेवाले और भट्टारक सकलचन्द्रके शिष्य भट्टारक रत्नचन्द्रने सं. १६८३ में खण्डेलवाल वंशी हेमराज पाटनीकी प्रेरणासे सुभौम चक्रि चरित्रकी रचना की थी। आपने यह ग्रन्थ पाटलिपुत्र नगरमें गंगा तटपर अवस्थित सुदर्शन जिनालयमें बैठकर बनाया था। उस समय यहाँ बादशाह सलीम (जहाँगीर) का शासन था। "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह" में यह बात इस प्रकार वर्णित है-- पत्तने पाटलीपुत्रे मगधान्तःप्रवर्तनी। स्वर्धनीतटगे पार्वे सुदर्शनालयमाश्रिते ।।१२।। सलेमसाहिसद्राज्ये सर्वम्लेच्छाधिपाधिपे। रक्षत्यत्र धराचक्रं निजिताखिलविद्विषि ॥१३।। १. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह, भाग १, पृ. ६२ । ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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