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कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएँ
पाटलिपुत्र में और भी कतिपय महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं, जिनका वर्णन पुराणों और कथा-ग्रन्थों में मिलता है । एक घटना इस प्रकार वर्णित है
भारतके दिगम्बर जैन तीथं
पाटलिपुत्र नरेश महापद्मनन्दके दो मंत्री थे - शकटाल और वररुचि । शकटाल जैन था, वररुचि जैन धर्म-द्वेषी । एक दिन शकटालने जैन मुनिका उपदेश सुनकर मुनिदीक्षा ले ली और तपस्या करने लगे। कुछ समय बाद विहार करते हुए वे पाटलिपुत्र पधारे और आहार के लिए नगरमें आये। राजमहलों में आहार करके जब वे वापस वनकी ओर जा रहे थे कि वररुचिने देख लिया । उसने नन्दराजसे शकटाल के सम्बन्धमें झूठी शिकायत करके नन्दको शकटालके विरुद्ध कर दिया । क्रोधमें नन्दने सैनिकोंको आज्ञा दी कि शकटालका सिर काट दिया जाये । सैनिक शकटाल मुनिकी खोज में वनमें गये । मुनिराजने जब सैनिकोंको खड्ग हाथमें लिये और अपनी ओर आते हुए देखा उन्होंने समझ लिया कि मुझे ही मारने आ रहे हैं। उन्होंने तत्काल चारों प्रकारका आहार त्याग करके सल्लेखना ले ली और आत्म-ध्यान में लीन हो गये । सैनिकोंने आकर ध्यानस्थ मुनिका वध कर दिया। मरकर मुनि शकटाल स्वर्ग में देव हुए। बादमें जब नन्दको सही स्थितिका ज्ञान हुआ तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ i
इस सम्बन्धमें 'भगवती आराधना' में भी निम्नलिखित उल्लेख उपलब्ध होता है— गडालए वि तधा सत्थग्गणेण साधिदो अत्थो । वररुइपओगहेदुं रुट्ठे णंदे महापउमे ||२०७६ ||
अर्थात् वररुचिके कहनेपर जब महापद्मनन्द रुष्ट हो गया तो शकटालने सत्यको ग्रहण करके आत्म-हितका साधन किया ।
यह वही नगरी है जहाँपर चाणक्यने नन्दवंशका उन्मूलन करके अपनी विचक्षण बुद्धि और चन्द्रगुप्त मौर्य की वीरता से भारत में मौर्य वंशका राज्य स्थापित किया । अनन्तर चाणक्यने भी जैन मुनि दीक्षा धारण कर ली । कुछ समय बाद उनके गुरु मतिप्रधानने उन्हें आचार्य पद दे दिया । एक बार आचार्य चाणक्य अपने पाँच सौ शिष्योंके साथ बिहार करते हुए क्रोंचपुरमें गवाट (जहाँ गायें बँधती हैं) में ठहरे। नन्दराज के भूतपूर्वं मन्त्री सुबन्धुने उन्हें पहचान लिया । उसने नन्दराजका बदला लेने के लिए गवाटमें आग लगवा दी, जिसमें सभी मुनियों सहित आचार्य चाणक्यने उत्तमार्थ प्राप्त किया ।
'भगवती आराधना' में इस सम्बन्धमें उल्लेख है—
गो पाओगदो सुबंधुणा गोव्वरे पलिविदम्मि | ज्झन्तो चाणक्को पडिवण्णो उत्तमं अहं ।। १५५६।।
आचार्य हरिषेण कृत 'बृहत्कथाकोष' में लिखा है किचाणक्याख्यो मुनिस्तत्र शिष्यपञ्चशतैः सह । पादोपगमनं कृत्वा शुक्लध्यानमुपेयिवान् || १४३।८३|| उपसर्गं सहित्वेमं सुबन्धुविहितं तदा । समाधिमरणं प्राप्य चाणक्यः सिद्धिमीयिवान् ॥१४३॥८४॥
१. हरिषेण कथाकोष - कथा १५७ ।