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________________ १२८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं गलित हो गया और मनमें कोमलता जागी । समवसरण - विभूतिको देखकर उनके मनमें विचार आया - जिनकी ऐसी लोकोत्तर विभूति है, वे क्या किसीके द्वारा जीते जा सकते हैं । जब वे भगवाके समक्ष पहुँचे तो अन्तरसे भक्तिकी हिलोर - सी उठी और वे हाथ जोड़कर भगवान् की स्तुति करने लगे। फिर उन्होंने भगवान्को नमस्कार किया और अपने दोनों भ्राताओं और शिष्यों सहित भगवान् के चरणोंमें जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उस समय उनके परिणाम इतने निर्मल थे कि उन्हें तत्काल बुद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षेत्र ये आठ ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। बुद्धि ऋद्धि प्राप्त होने पर अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, कोष्ठमति, बुद्धि, भिन्न, श्रोतृ और पदानुसारी ज्ञान भी स्वयं प्राप्त हो गये । करते आचार्य वृषभ इन्द्रभूतिके आने पर भगवान्‌ की दिव्य ध्वनि खिरनेके कालका उल्लेख हुए ; 'तिलोयपण्णत्ती' में बतलाते हैं - अवसर्पिणीके चतुर्थं कालके अन्तिम भाग में तेतीस वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर श्रावण नामक प्रथम मासमें कृष्ण पक्षकी प्रतिपदा के दिन अभिजित् नक्षत्रके उदित रहने पर धर्मतीर्थंको उत्पत्ति हुई अर्थात् भगवान् महावीरकी प्रथम दिव्यध्वनि खिरी। उस समय रुद्र मुहूर्तं था, सूर्योदयका शुभकाल था और अभिजित् नक्षत्रका प्रथम योग था । ( युगका प्रारम्भ भी इसी दिन होता है ) । इसी प्रकार जयधवला टीकामें आचार्य वीरसेनने बताया है कि- 'जो आर्य क्षेत्रमें उत्पन्न हुए हैं; मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार निर्मल ज्ञानोंसे सम्पन्न हैं; जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तपको तपा है; जो अणिमा आदि आठ प्रकारकी वैक्रियिक लब्धियोंसे सम्पन्न हैं; जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करनेवाले देवोंसे अनन्तगुणा बल है; जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रन्थोंके स्मरण और पाठ करनेमें समर्थ हैं; जो अपने पाणिपात्र में दी गयो खीरको अमृत रूपसे परिवर्तित करनेमें या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं; जिन्हें आहार और स्थानके विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है; जिन्होंने सर्वावधि ज्ञानसे अशेष पुद्गल द्रव्यका साक्षात्कार कर लिया है; तपके नलसे जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मनःपर्यंय ज्ञान उत्पन्न कर लिया है; जो सात प्रकारके भयसे रहित हैं; जिन्होंने चार कषायों का क्षय कर दिया है; जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया है; जिन्होंने मन, वचन और कायरूप दण्डोंको भग्न कर दिया है; जो छह कायिक जीवोंकी दया पालने में तत्पर हैं; जिन्होंने कुल, मद आदि आठ मदोंको नष्ट कर दिया है; जो क्षमादि दस धर्मोंमें निरन्तर उद्यत हैं; जो आठ प्रवचन मातृका गणोंका अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं; जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहोंके प्रसारको जीत लिया है; और जिनका सत्य ही अलंकार है ऐसे आर्यं इन्द्रभूतिके लिए उन महावीर भट्टारक अर्थंका उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्रमें उत्पन्न हुए इन्द्रभूतिने एक अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग अर्थका अवधारण करके उसी समय बारह अंग रूप ग्रन्थों की रचना की और गुणोंसे अपने समान श्री सुधर्माचार्यको उसका व्याख्यान किया । तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञानको उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलि विहार रूपसे विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए । तिलोयपण्णत्ती ( ४-१४७६ ) में वर्णन है कि जिस दिन भगवान् महावीर सिद्ध हुए, उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञानको प्राप्त हुए । पुनः गौतमके सिद्ध होनेपर सुधर्मास्वामी केवली हुए । जिस दिन सुधर्मा स्वामी मुक्त हुए, उसी दिन जम्बूस्वामी केवली हुए । १. तिलोयपत्ती, अधिकार १, गाथा ६८-७० । २. गाथा १, पृ. ८३ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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