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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विषयमें थोड़ा अन्तर है। दिगम्बर परम्पराके अनुसार उनका निर्वाण विपुलाचलसे हुआ और श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार उनका निर्वाण गुणशील चैत्यमें हुआ। किन्तु इस मान्यता-भेदका भी विशेष कारण है। दिगम्बर परम्परामें जिस प्रकार विपुलाचलको महत्त्व प्राप्त है, श्वेताम्बर परम्परामें उसी प्रकार गुणशील चैत्यको विशेष महत्त्व दिया गया है। जैसे दिगम्बर परम्परामें विपूलाचलको अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओंका केन्द्र माना है, श्वेताम्बर परम्परामें उसी प्रकार गुणशील चैत्य नानाविध घटनाओंका संगमस्थल बन गया है।
किन्तु इन दोनों परम्पराओंकी मान्यताके विरुद्ध गणावा कब, किस कालमें, क्यों और कैसे गौतम स्वामीके नामके साथ सम्बन्धित होकर सिद्धक्षेत्र बन गया, इसका अन्वेषण होनेकी आवश्यकता है। हमें लगता है, जिन दिनों कुण्डलपुरको भगवान् महावीरका जन्म-नगर मानकर उसे तीर्थक्षेत्र बना दिया गया, लगभग उन्हीं दिनों तीर्थ-स्थापनाके अति उत्साहमें गुणावाको गौतम स्वामीका निर्वाण-क्षेत्र मान लिया गया। सम्भवतः उस समय सही निर्णय करने वत साधनोंका अभाव था अथवा विज्ञ लोगोंने इस बातको विशेष महत्त्व नहीं दिया। किन्तु अब यह निर्णय करना ही होगा कि कौन तीर्थ अपने वास्तविक स्थानपर है और कौन-सा तीथं उसके वास्तविक स्थानको भूलकर केवल श्रद्धावश किसी दूसरे स्थानपर बना दिया गया है।
यदि हमारा अनुमान सही है तो मानना होगा कि एक तीर्थके रूपमें इस स्थानकी जो ख्याति विगत छह शताब्दियोंसे चली आ रही है उसके साथ इतने लम्बे कालसे भक्तजनोंका जो भावनात्मक सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, उसे देखते हुए भविष्यमें भी इस स्थानको एक तीर्थके रूपमें मान्यता प्राप्त रहे, इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इन सब बातोंको देखते हुए प्रसंगवश यहाँ गौतम स्वामीका संक्षिप्त परिचय दे देना अनुपयुक्त नहीं होगा।
गौतम स्वामीका यशस्वी जीवन
गौतम स्वामी वर्तमान जैन वाङमयके आद्य-प्रणेता थे। षटखण्डागम, तिलोयपण्णत्ती आदि आर्ष ग्रन्थोंमें भगवान् महावीरको भावकी अपेक्षा समस्त वाङमयका अर्थकर्ता अथवा मूलतन्त्रकर्ता अथवा द्रव्यश्रुतका कर्ता बतलाया है और गौतम गणधरको उपतन्त्रकर्ती अथवा द्रव्यश्रुतका कर्ता कहा गया है। किन्तु आश्चर्य है कि ऐसे महान् व्यक्तिका जीवन वृत्तान्त नहीं मिलता। लगभग १६वीं शताब्दीमें मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र द्वारा विरचित 'गौतम चरित्र' नामक एक ग्रन्थमें उनके जीवनके सम्बन्धमें साधारण-सा प्रकाश डाला गया है। उसके द्वारा ही हमें गौतम स्वामीके सम्बन्धमें कुछ जानकारी मिलती है। ___इस ग्रन्थके अनुसार मगध देशमें एक ब्राह्मण नगर था। इस नगरमें अनेक बिद्वान् ब्राह्मण रहते थे। इस नगरमें सदा वेदोंकी ध्वनि गूंजा करती थी। इसी नगरमें सदाचार परायण, बहुश्रुत और सम्पन्न शांडिल्य नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। उसके रूप और शीलसे सम्पन्न स्थण्डिला और केसरी नामक दो पत्नियाँ थीं। एक दिन रात्रिको सोते हुए अन्तिम प्रहरमें स्थण्डिला ब्राह्मणीने शुभ स्वप्न देखे । तभी पाँचवें स्वर्गसे एक देवका जीव आयु पूर्ण होने पर माता स्थण्डिला के गर्भ में आया। गर्भावस्था में माताकी रुचि धर्मकी ओर विशेष बढ़ गयी थी।
. नौ माह व्यतीत होने पर माताने एक सुदर्शन पुत्रको जन्म दिया। उस पुण्यशाली पुत्रके उत्पन्न होनेके समय सब दिशाएँ निर्मल हो गयीं, सुगन्धित वायु बहने लगी और आकाशमें देव लोग जयजयकार कर रहे थे। पुत्र-जन्मसे ब्राह्मण दम्पतिको अपार हर्ष हुआ । शाण्डिल्य ब्राह्मणने पुत्र-जन्मकी खुशीमें याचकोंको मनमाना धन दान किया। निमित्तज्ञानीने पुत्रके ग्रहलग्न देखकर