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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं पावापुरी, जिसे मध्यमा, मध्यमा पावा और अपापापुरी भी कहा जाता है, इन दो घटनाओंके कारण अत्यन्त प्रसिद्धिको प्राप्त हो गयी थी । श्वेताम्बर वाङ्मयके उपर्युक्त उल्लेखों से पावाकी वास्तविक स्थितिपर भी प्रकाश पड़ता है । चतुविध-संघ स्थापना के प्रकरणमें मध्यमा ( पावा ) को जृम्भक गाँवसे १२ योजन दूर माना है। साथ ही, निर्वाणकी घटनाके प्रकरणमें भगवान् के बिहारका क्रम इस प्रकार दिया है, " चम्पा नगरीमें चातुर्मास पूर्ण करके भगवान् विचरते हुए जंभिय गाँव पहुँचे । वहाँसे मिढिप होते हुए छम्माणि गये । यहींपर ग्वालेने भगवान् के कानों में काठके कीले ठोक दिये थे । छम्माणिसे भगवान् मध्ममा पधारे। मध्यमासे विचरते हुए जम्भियगाँव आये, जहाँ उन्हें केवलज्ञान हुआ । केवलज्ञानके बाद वे पुनः मध्यमा आये, जहां गौतमादिको अपना गणधर बनाया, वहाँसे वे राजगृह गये । वहाँपर चातुर्मास करके उन्होंने राजगृह विदेहकी ओर विहार किया और ब्राह्मण-कुण्ड पहुँचे । १२० प्राचीन भारत के नक्शेको देखनेसे और भगवान् महावीरके उपर्युक्त बिहार क्रमको दृष्टिमें रखने पर यह पता चल सकता है कि भगवान् चम्पासे मध्यमा पावा होते हुए राजगृह गये और वहाँसे वैशाली गये, तब असली पावा कहाँ होनी चाहिए । स्पष्ट है कि यही मध्यमा पावा आज की पावापुरी है और यही भगवान् महावीरकी निर्वाण स्थली है । साहित्य बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलोंपर विभिन्न प्रसंगों में पावाका उल्लेख मिलता है । उन प्रसंगोंका यहाँ उल्लेख करना बहुत ही उपयोगी होगा और उनसे हमें उस पावाका निर्णय करने में सुविधा रहेगी, जो वस्तुतः महावीर भगवान्की निर्वाण भूमि है । निर्वाण संवाद- १ ' एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन खो पन समयेन निगण्ठो तापुत्त पावार्थ अधुना कालङ्कतो होति । तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिक जाता भण्डन जाता कलह जाता विवादापन्ना अञ्ञमन्त्रं मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति - न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि । अहं इमं धम्मविनयं आजानामि किं त्वं इयं धम्मविनयं आजानिस्ससि । मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो ।......ये पि निगण्ठस्स नातपुत्तस्स सावका गही ओदातवसना ते पि निगण्ठेसु तातपुत्तिगेसु निव्विन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा यथा तं दुरक्खाते धम्मविनये दुप्पवेदिते अनिय्यानके अनुपसम संवत्तनिके असम्मासम्बुद्धप्वेदि भिन्नरूपे अप्परसरणे । अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्सं वुत्थो येन सामगामो येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्घमि । उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं आनन्दं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच - 'निगण्ठो भन्ते नातपुत्तो पावायं अधुना - कालङ्कृतो । तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिक जाता... पे०... भिन्नथूपे अप्पटिसरणे' ति । एवं वृत्ते आयस्मा आनन्दो चुन्दं समणुद्देसं एतदवोच – 'अत्थि खो इदं, आवुसो चुन्द, कथापामतं भगवन्तं दस्सनाय । आयाम आवुसो चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम । उपसङ्कमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्साम' ति । ' एवं भन्ते' ति खो चुन्दो समणुद्देसो आयस्तो आनन्दस्स पच्चस्सोसि । - मज्झिमनिकाय, सामगाम सुत्तन्त
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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