________________
११९
बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ प्रथम बार भगवान् केवलज्ञानकी प्राप्तिके अगले ही दिन पधारे। ऋजुकूला नदीके तटपर अवस्थित जृम्भक ग्रामके बाहर साल वृक्षके नीचे वैशाख शुक्ला १० को भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इन्द्रों और देवोंने भगवान्के ज्ञान कल्याणकका उत्सव किया। किन्तु समवसरण में केवल इन्द्र और देवता ही उपस्थित थे। अतः विरति रूप संयमका लाभ किसी प्राणीको नहीं हो सका। यह आश्चर्यजनक घटना जैनागमोंमें 'अछेरा' (आश्चर्यजनक या अस्वाभाविक ) नामसे प्रसिद्ध है।
उन दिनों मध्यमा पावामें, जो जम्भक गाँवसे लगभग बारह योजन (४८ कोस ) दूर थी, सोमिलाचार्य ब्राह्मण बड़ा भारी यज्ञ रचा रहा था, उसमें बड़े-बड़े विद्वान् देश-देशान्तरोंसे आकर सम्मिलित हुए थे। भगवान्ने यह सोचा कि यज्ञमें आये हुए विद्वान् ब्राह्मण प्रतिबोध पायेंगे और धर्मके आधारस्तम्भ बनेंगे, अतः वहाँ चलना ठीक रहेगा। यह विचारकर भगवान्ने सन्ध्या समय बिहार कर दिया और रात भर चलकर मध्यमाके महासेन उद्यानमें पहुँचे । एकादशीको इसी उद्यानमें भगवान्का दूसरा समवसरण लगा। भगवानका उपदेश एक पहर तक हुआ। उनके ज्ञान और लोकोत्तर उपदेशकी चर्चा सारी नगरीमें होने लगी। सोमिलके यज्ञ में आये हुए इन्द्रभूति आदि ११ विद्वानोंने भी यह चर्चा सुनी। वे ज्ञान-मदसे भरे हुए अपने शिष्यों और छात्रोंके साथ भगवान्के पास पहुंचे। उनका उद्देश्य भगवान्को विवादमें पराजित करके अपनी प्रतिष्ठामें चार चाँद लगाना था। किन्तु वहाँ जाकर उनका मद विगलित हो गया। उन्होंने भगवान्के चरणोंमें विनयपूर्वक नमस्कार किया और दीक्षा ले ली। इस प्रकार मध्यमाके समवसरण में एक ही दिनमें ४४११ ब्राह्मणोंने भगवानके चरणोंमें नतमस्तक होकर श्रमण धर्म अंगीकार कर लिया। भगवानने उन ग्यारह विद्वानोंको अपने मुख्य शिष्य बनाकर गणधर पदसे विभूषित किया। उस समय अनेक नर-नारियोंने भी भगवान्का उपदेश सुनकर मुनि-व्रत या श्रावकके व्रत लिये। भगवान्ने वैशाख शक्ला ११ को मध्यमा पावाके महासेन उद्यानमें साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघकी स्थापना की।
__ इस नगरीमें दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना भगवान के निर्वाण की है। भगवान चम्पासे विहार करते हुए अपापा पधारे । इस वर्षका वर्षावास अपापामें व्यतीत करनेका निश्चय करके वे राजा हस्तिपालकी रज्जुग सभामें पहुंचे और वहीं वर्षा-चतुर्मासकी स्थापना की। इस चातुर्मास में दर्शनों के लिए आये हुए राजा पुण्यपालने भगवान्से दीक्षा ली। कार्तिककी अमावस्याको प्रातःकाल राजा हस्तिपालके रज्जुग सभा-भवनमें ( कहीं इसे राजा हस्तिपालकी शुल्कशाला भो लिखा है ) भगवान को अन्तिम उपदेश-सभा हई। उस सभामें अनेक गण्यमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। उनमें लिच्छवियोंके नौ और मल्लोंके नौ गणराजा उल्लेखनीय थे।
भगवान्ने अपने जीवनकी समाप्ति निकट जानकर अन्तिम उपदेशकी अखण्ड धारा चालू रखी, जो अमावस्याकी पिछली रात तक चलती रही। अन्तमें प्रधान नामक अध्ययनका निरूपण करते हुए अमावस्याकी पिछली रातको वह सब कर्मोंसे मुक्त हो गये। भगवान्के निर्वाग पर उक्त गणराजोंने कहा-'संसारसे भाव-प्रकाश उठ गया, अब द्रव्य प्रकाश करेंगे।' यह निश्चय कर उन्होंने रत्नदीप जलाये। गौतम स्वामी जो उस समय भगवान्की आज्ञासे निकटवर्ती गाँवमें देवशर्मा ब्राह्मणको उपदेश देनेके लिए गये हुए थे, उस समय भगवान्की वन्दनाके लिए वापस लौट रहे थे। अकस्मात् उन्होंने आकाशमें देवताओंको यह कहते हुए सुना-'भगवान् कालगत हो गये।' तब उनके मुख से निकला-'आज भारतवर्ष शोभाहीन हो गया। उन्हें तत्क्षण केवलज्ञान हो गया।