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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ लगाया गया है । मूल मन्दिर ईंटोंका बना हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व इस मन्दिरका जीर्णोद्वार हुआ था। उस समय प्राचीन मन्दिर और उसमें लगी हुई बड़ी-बड़ी ईंटोंको हजारों व्यक्तियोंने देखा था। पुरातत्त्ववेत्ताओंके मतसे ये ईंटें दो-ढाई हजार वर्ष प्राचीन हैं। मुनि दर्शनविजयजी त्रिपुटीने भी 'जैन परम्परा नो इतिहास में इसी बातका उल्लेख इन शब्दोंमें किया है—“मन्दिर नो जीर्णोद्धार करतां पाया पांथी अढी हजार वर्ष नी मोटी इंटी निकली हती। संक्षेपमें यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि यह मन्दिर अपने मूल रूपमें बहुत प्राचीन है।।
मन्दिरमें केवल गर्भगृह है और बाहरकी ओर उसके चारों ओर बरामदा है। मन्दिरमें तीन दीवार-वेदियाँ बनी हुई हैं। मध्यकी वेदीमें भगवान् महावीरके चरण विराजमान हैं। इसी प्रकार बायीं ओरकी वेदीमें भगवान के मुख्य गणधर गौतम स्वामीके तथा दायीं ओरकी वेदीमें सुधर्मा स्वामीके चरण स्थापित हैं । मन्दिरमें कोई मूर्ति नहीं है । मन्दिर शिखरबद्ध है।
मन्दिरके बाहर चबतरेके चारों कोनोंपर मन्दरियाँ ( गमटियाँ) बनी हुई हैं। पूर्वकी गुमटीमें दादाजीके चरण, दूसरी गुमटीमें १६ सतियोंके, तीसरी गुमटोमें ११ गणधरोंके और चौथी गुमटीमें दिव्यविजय जी ( संवत् १७५३ ) के चरण विराजमान हैं। समवसरण-मन्दिर
जलमन्दिरके सामने समवसरण मन्दिर बना हुआ है, जिसमें भगवान् महावीरके चरण विराजमान हैं। वद्ध जनोंसे इन चरणोंके सम्बन्धमें एक अत्यन्त रोचक कहानी सुनने में आयी। जहाँ श्वेताम्बरोंने अपना नया समवसरण मन्दिर बनाया है, वहाँ प्राचीन स्तूप और एक कुआँ है । पहले ये चरण वहाँपर विराजमान थे। ग्वाले अपने ढोर चराने वहाँ आते थे। एक दिन किसी शरारती ग्वालेने वे चरण उठाकर कुएँमें पटक दिये। किन्तु चरण पानीमें नहीं डूबे, बल्कि पानीपर तैरते रहे। इससे ग्वालोंको बड़ा कुतूहल हुआ। और जब दूसरे दिन ग्वाले फिर उसी स्थानपर आये तो उन्हें यह देखकर भारी आश्चर्य हुआ कि चरण अपने पूर्व स्थान पर ही विराजमान हैं। कुतूहलवश उन्होंने उन चरणोंको फिरसे उसी कुएँमें फेंक दिया और अगले दिन जब फिरसे आकर देखा तो वे चरण पुनः अपने स्थानपर मौजूद थे। उन्होंने उन चरणोंको कौतूहलवश कई बार कुएँमें फेंका मानो उनके लिए यह दैनिक कृत्य हो गया था। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। अन्तमें यह समाचार जैन समाजके कानोंमें पड़ा। विचारोपरान्त निर्णय हुआ कि कहीं इस कुतुहललीलामें चरणोंको हानि न पहुँचे, समाजने वहाँसे वे चरण उठवा लिये और जल-मन्दिरके सामने मन्दिरमें स्थापित कर दिये । तबसे वे वहींपर विराजमान हैं।
इसमें सन्देह नहीं है कि ये चरण अत्यन्त प्राचीन हैं और सम्भवतः उस स्थानपर स्थापित किये गये थे, जहाँ भगवान्का अन्तिम समवसरण लगा था। उसी प्राचीन स्थानपर श्वेताम्बर समाजने संगमरमरका भव्य समवसरण-मन्दिर बनवाया है। दिगम्बर जैन कार्यालय-मन्दिर
इस क्षेत्रपर पहले ये ही दो मन्दिर थे और एक धर्मशाला। इनपर दोनों सम्प्रदायवालोंका समान अधिकार था। बादमें दिगम्बर समाजने पृथक् धर्मशालाओं और मन्दिरोंका निर्माण किया। आजकल जल-मन्दिर और समवसरण मन्दिरपर दर्शन-पूजनकी दृष्टिसे दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंका समान अधिकार है।
१. जैन परम्परा नो इतिहास, भाग १, पृष्ठ ६२ ।