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________________ ११३ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ 'सिद्ध वीर जिनेन्द नगर कहु पावापुरीए।' भट्टारक अभयनन्दिके शिष्य सुमतिसागर १६वीं शताब्दी, ने 'तीर्थजयमाला' में लिखा है-'सुपावापुरि वर वीर मुनीन्द्र' । काष्ठासंघ नन्दीतट गच्छके भट्टारक रत्नभूषणके शिष्य जयसागर (१७वीं शताब्दी ) ने 'तीर्थजयमाला' में लिखा है-'वड्ढमाण पावापुरि सेव । मराठीके कवि चिमणा पण्डित ( सन् १६५१ से १६७० ) ने 'तीर्थवन्दना' नामक रचना की है। उसमें महावीर भगवान्का वर्णन करते हुए लिखा है 'महीपति सिद्धार्थ कुंडलपुरी' वीर जन्मले त्रिसलेच्या उदरी। तीस वर्ष कुमार दीक्षा सिकारी। पावापरी मक्ति पदमसरोवरी ॥ इस प्रकार पावापुरीके सम्बन्धमें यतिवृषभ, पूज्यपाद, जटासिंहनन्दी, रविषेण, जिनसेन, गुणभद्र, मदनकीति, निर्वाणकाण्ड, उदयकीर्ति, श्रुतसागर, गुणकीर्ति, जयसागर, ज्ञानसागर, मेघराज, सुमतिसागर, सोमसेन, चिमणा पण्डित आदि अनेक आचार्यों, भट्टारकों और कवियोंने लिखा है और उसे भगवान् महावीरकी निर्वाण-भूमि माना है। भगवान्का निर्वाण-स्थान जिस स्थानपर भगवान्का निर्वाण हुआ था, वहाँ अब एक विशाल सरोवर बना हुआ है। इस तालाबके सम्बन्धमें जनतामें एक विचित्र किंवदन्ती प्रचलित है। कहा जाता है कि भगवान्के निर्वाणके समय यहाँ भारी जन-समूह एकत्रित हुआ था। प्रत्येक व्यक्तिने इस पवित्र भूमिकी एक-एक चुटकी मिट्टी उठाकर अपने भालमें श्रद्धापूर्वक लगायी थी। तभीसे यह तालाब बन गया है । आम जनतामें इस सरोवरको पहले नोखुर सरोवर कहा जाता था। जिसका अर्थ है नाखूनोंसे खोदा गया। यह भी कहा जाता है कि यह सरोवर पहले चौरासी बीधेमें फैला हुआ था। किन्तु आजकल यह चौथाई मील लम्बा और इतना ही चौड़ा है। सरोवर अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होता है। विविध रंगोंमें खिले हुए कमल-पुष्पोंके कारण इस सरोवरकी शोभा अद्भुत लगती है। पुष्पोंपर सौरभ और रसके लोभी भ्रमर गुंजार करते रहते हैं। तालाबमें मछलियाँ और सर्प किलोल करते रहते हैं। कौतुक-प्रेमी लोग मछलियोंको जब भोज्य पदार्थ जलमें डालते हैं, उस समय उन मछलियोंकी परस्पर छीना-झपटी और क्रीड़ा देखने लायक होती है। जलमन्दिर इस सरोवरके मध्यमें श्वेत संगमरमरसे निर्मित एक जैन मन्दिर है जिसे जलमन्दिर कहते हैं । इस जलमन्दिरमें जानेके लिए सड़क किनारे लाल पाषाणका बना हुआ एक बड़ा प्रवेश-द्वार मिलता है। इस द्वारसे मन्दिर तक लाल पाषाणका ही ६०० फुट लम्बा पुल बना हुआ है। रात्रिमें जब बिजलीका प्रकाश होता है और उसका प्रतिबिम्ब जलमें पडता है तो वहाँका दश्य बड़ा ही भव्य और सुहावना लगता है। जहाँ पुल समाप्त होता है, वहाँ संगमरमरका द्वार बना हुआ है । उसमें प्रवेश करनेपर संगमरमरका विशाल चबूतरा मिलता है । उसके मध्यमें संगमरमरका भव्य और कलापूर्ण जैन मन्दिर बना हुआ है । जिस टापूपर मन्दिर बना हुआ है वह १०४ वर्ग गज है । कहते हैं, इस मन्दिरका निर्माण किसी नन्दिवर्धन नामक राजाने कराया था और वेदीकी नींव सोनेकी ईंटोंसे भरी गयी थी। प्रारम्भमें यह मन्दिर संगमरमरका नहीं था, संगमरमर बादमें भाग २-१५
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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