SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - अर्थात् जिन्हें तिर्यंच भी भक्ति पूर्वक अपनी वाणी द्वारा नमस्कार करते हैं और जिनके दोनों चरणोंके दर्शन कर लेने पर भव्य जीव दुर्गतिको प्राप्त नहीं होते तथा पावापुरमें इन्द्र द्वारा जिनके दोनों चरण-कमल सम्पूजित हैं, पापोंको नष्ट करनेवाले वे श्री वीर जिनेन्द्र दिगम्बर शासनकी सदा रक्षा करें। - इसमें पावापुरके वीर भगवान्की प्रतिमाका यह अतिशय बताया है कि एक तो तिर्यंच भी उसे नमस्कार करते हैं और दूसरे यह कि उनके दर्शन कर लेने पर नीच गति नहीं मिलती। यह प्रतिमा अवश्य ही यतिजीके कालमें तेरहवीं शताब्दीमें रही होगी। -- भट्टारक यशःकर्ति ( १५वीं शताब्दी ) ने 'जिणरत्ति कहा' के अन्तिम भागमें पावापुरका वर्णन करते हुए कहा है दह-तिउण वरिसि विहरिवि जिणेंदु, पयडेवि धम्मु महियलि अणेंदु । पावापुर वर मज्झिहि जिणेसु, वेदिण सह उज्झिवि मुत्तिई ॥ चउसेसह कम्मह करि विणासु, संपत्तउ सिद्ध-णिवास-वासु। देवालो अम्मावस अलेउ। महो देउ वोहि देवाहिदेउ ।। चउदेव-णिकायहं अइमणुज्ज, आइवि विरइय णिव्वाण-पुज्ज । अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् महावीरने तीस वर्ष तक बिहार करके पृथ्वी पर अनिन्द्य धर्मको प्रकट किया। फिर पावापुरमें आत्म-ध्यान करके मुक्त हुए । उन्होंने अवशिष्ट चार अघाति कर्मोंका विनाश कर सिद्धालयमें निवास किया । तब अमावस्याको दोपावली की गयी और चतुनिकाय देवोंने आकर निर्वाण-कल्याणककी पूजा की। भट्टारक यशःकीर्ति काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगणके भटारक गुणकीर्तिके लघुभ्राता और पट्टधर थे । ग्वालियरके मन्दिरमें इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विराजमान हैं । ये ग्वालियरके शासक तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह ( राज्य काल सं. १४८१-१५२० ) के समकालीन थे। इनके महाकवि रइधु जैसे शिष्य थे। भट्टारक ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थवन्दना' की रचना की है। उसमें पावापुरसे सम्बन्धित पद्य इस प्रकार है 'मगध देश विशाल नयर पावापुर जाणो। जिनवर श्री महावीर तास निर्वाण बखाणो। अभिनव एक तलाव तस मध्ये जिन मन्दिर । रचना रचित विचित्र सेवक जास पुरन्दर ।। जिनवर श्री महावीर तिहाँ कर्म हणि मोक्षे गया। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति सिद्ध तणुं पद पाभया ।। भट्टारक ज्ञानसागर काष्ठा संघ नन्दीतट गच्छके भट्टारक श्रीभूषणके शिष्य थे। इनका समय अनुमानतः सन् १५७८ से १६२० तक है। कवि मेघराज १६वीं शताब्दीने गुजराती भाषाकी 'तीर्थवन्दना' में कहा है
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy