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बिहार - बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
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फल बताया । फल सुनकर पुण्यपालने मुनि दीक्षा ले ली। बादमें तप द्वारा कर्मोंका नाश करके मुक्ति प्राप्त की । इसके बाद भगवान् समवसरणसे निकलकर हस्तिपाल राजाकी शुल्कशाला में पधारे । भगवान् ने यह जानकर कि आज रात्रिमें मेरा निर्वाण होगा, गौतमका मेरे प्रति अनेक भवोंसे स्नेह है और उसे आज रात्रिके अन्तमें केवलज्ञान होगा, मेरे वियोगसे वह दुखी होगा, भगवान्ने गौतमसे कहा " गौतम ! दूसरे गाँवमें देवशर्मा ब्राह्मण है । उसको तू सम्बोध आ । तेरे कारण उसे ज्ञान प्राप्त होगा ।" प्रभुके आदेशानुसार गौतम वहाँसे चले गये ।
भगवान्का निर्वाण हो गया । इन्द्रने नन्दन आदि वनोंसे लाये हुए गोशीर्ष, चन्दन आदि से चिता चुनी । क्षीरसागरसे लाये हुए जलसे भगवान्को स्नान कराया, दिव्य अंगराग सारे शरीर पर लगाया । विमानके आकारको शिविकामें भगवान्की मृत देह रखी गयी । देवता आकाशसे पुष्पवर्षा कर रहे थे । तमाम दिव्य बाजे बज रहे थे । शिविका के आगे देवियाँ नृत्य करती चल रही थीं ।
श्रावक और श्राविकाएँ भी शोकातुर थे और रासक-गीत गा रहे थे । साधु और साध्वियाँ भी शोकाकुल थे।
तदनन्तर इन्द्र भगवान्का शरीर चितापर रखा। अग्निकुमारोंने चितामें आग लगायी । वायुकुमारोंने आगको हवा दी। देवताओंने चितामें धूप और घीका अर्पण किया । शरीरके जल _ जानेपर मेघकुमार देवोंने क्षीर समुद्र के जलकी वर्षा करके चिताको शान्त किया । भगवान् के ऊपरकी दो दाढ़ें सौधर्म और ऐशान इन्द्रोंने लीं और नीचेकी दोनों दाढ़े चमरेन्द्र और बलीन्द्र ने लीं । अन्य दाँत और हड्डियाँ दूसरे इन्द्रों और देवोंने लीं । और मनुष्योंने चिता भस्म ली । जिस स्थान - पर चिता जलायी, उस स्थानपर देवोंने रत्नमय स्तूप बना दिया । इस प्रकार देवताओंने वहाँ भगवान्का निर्वाण - महोत्सव मनाया ।
आचार्य निप्रभसूरि कृत 'विविध तीर्थंकल्प' में अपापापुरी कल्प १४ और अपापा बृहत्कल्प २१ नामक दो कल्प दिये हैं । संक्षिप्त कल्पमें महावीरसे सम्बन्धित दो घटनाएँ दी हैं- एक अपापापुरीके महासेन उद्यानमें महावीर द्वारा तीर्थं प्रवृत्ति और दूसरे अपापापुरी नरेश हस्तिपालकी शुल्कशाला में अन्तिम देशना । इस कल्प में इस नगरीको मध्यमा अपापा बताया है ।
दूसरे बृहत्कल्पमें भगवान् महावीरका विस्तृत वर्णन, पुण्यपालके प्रश्नोंके उत्तरस्वरूप दी गयी अन्तिम देशना आदिका विवरण है । इसमें यह भी उल्लेख है कि पहले इस नगरीका नाम झापावा या पापापुरी था । इन्द्रने इसका नाम पावापुरी रख दिया । जहाँसे महावीर स्वामीका निर्वाण हुआ ।
पश्चात्कालीन साहित्य में पावा
पुराणोत्तर कालके जैन साहित्य में पावापुरीको महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। श्री मदनकीर्ति यतिने 'शासन चतुस्त्रिंशिक' में श्री वीर जिनकी एक सातिशय प्रतिभाका उल्लेख इस प्रकार किया है
'तिर्यञ्चोऽपि नमस्ति यं निजगिरा गायन्ति भक्त्याशया दृष्टे यस्य पदद्वये शुभदृशो गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्राचितपादपङ्कजयुग: पावापुरे पापहा श्रीमद्वीरजिनः स रक्षतु सदा दिग्वाससां शासनम् ||२९||