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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ है), देवानन्दा नामक रात्रि (जिसे निरइ भी कहते हैं), अर्थ नामक लव, सिद्ध नामक स्तोक, नाग नामक करण, सर्वार्थसिद्धि नामक मुहूर्त तथा स्वाति नक्षत्रका योग था। ऐसे समय भगवान् कालधर्मको प्राप्त हुए, वे संसार छोड़कर चले गये। उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये।"
भगवान के निर्वाण-गमनके समय अनेक देवी-देवताओंके कारण प्रकाश फैल रहा था। तथा उस समय अनेक राजा वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने द्रव्योद्योत किया था। उस समयका वर्णन करते हुए कल्पसूत्रकार कहते हैं
"जं रयणि च णं भगवं महावीरे कालगये जाव सव्वदुक्खप्पहीणे सा णं रयणी वहूहिं देवेहि य देवेहि य ओवयमाणेण य उप्पयमाणेहि य उज्जोविया यावि होत्था ॥१२४॥
___ "ज रयणि च णं समणे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रयणिं च णं नव मल्लइ नव लिच्छई कासीकोसलगा' अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभोयं पोसहोववासं पट्टवइंसु, गते से भावुज्जोए दव्वुज्जोवं करिस्सामो ॥१२७।। __अर्थ-जिस रात्रिमें श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुख पूर्ण रूपसे नष्ट हो गये, उस रात्रिमें बहुत-से देव और देवियाँ नीचे-ऊपर आ-जा रही थीं, जिससे वह रात्रि खूब उद्योतमयी हो गयी थी ॥१२४॥
जिस रात्रिमें श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुख नष्ट हो गये, उस रात्रिमें काशी देशके नौ मल्ल राजा और कोशल देशके नौ लिच्छवि राजा कुल अठारह गणराजा अमावस्याके दिन आठ प्रहरका प्रोषधोपवास करके वहाँ रहे हुए थे। उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्योत अर्थात् ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है अतः अब हम द्रव्योद्योत करेंगे अर्थात् दीपावली प्रज्वलित करेंगे" ॥१२७||
इस महत्त्वपूर्ण विवरणके पश्चात् विस्तार संख्या ९४६ में इसी सूत्रमें यह भी कथन किया गया है कि "इस अवसर्पिणी कालका दुषम-सुषम नामक चतुर्थ आरा बहुत कुछ व्यतीत होनेपर. तथा उस चतुर्थ आरेके तीन वर्ष और साढ़े आठ महीना शेष रहनेपर मध्यम पावा नगरीमें हस्तिपाल राजाकी रन्तुक सभा (शुल्कशाला) में एकाकी, षष्ठम तपके साथ स्वाति नक्षत्रका योग होते ही, प्रत्यूष कालके समय ( चार घटिका रात्रि अवशेष रहनेपर ) पद्मासनसे बैठे हुए भगवान् कल्याण फल-विपाकके पचपन अध्ययन, और पाप-फल-विपाकके दूसरे पचपन अध्ययन और अपृष्ठ अर्थात् किसीके द्वारा प्रश्न न किये जानेपर भी उनके समाधान करनेवाले छत्तीस अध्ययनोंको कहते-कहते कालधर्मको प्राप्त हुए।" । ___आचार्य हेमचन्द्र कृत 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित'के महावीर स्वामी चरित सर्ग १२ में भगवान् महावीरके अन्तिम कालका वर्णन किया गया है। उसमें लिखा है कि भगवान् विहार करते हुए अपापा नगरी पहुँचे ( जगाम भगवान्नगरीमपापाम् । सर्ग १२ श्लोक ४४० ) । वहाँ भगवान्को देशनाके लिए देवोंने समवसरणकी रचना की। भगवान्ने जान लिया कि अब मेरी आयु क्षीण होनेवाली है, अतः अन्तिम देशना देनेके लिए वे समवसरणमें गये। अपापापुरीके अधिपति हस्तिपालको जब ज्ञात हुआ कि भगवान् समवसरणमें पधारे हैं तो वह भी उपदेश सुनने वहाँ गया । वहाँ इन्द्रने प्रश्न किया। उसका उत्तर देते हुए भगवानका उपदेश हुआ। जब उपदेश समाप्त हो गया, तब मण्डलेश पुण्यपालने अपने देखे हुए स्वप्नका फल पूछा । भगवान्ने उसका
१. इसकी टीका 'सन्देहविषौषधि' में इसकी व्याख्या इस प्रकार की गयी है-काशीदेशस्य राजानो मल्लकीजातीया नवकोशलदेशस्य राजानो लेच्छकीजातीया ।