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बिहार-बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
पहाड़ के मन्दिरको वेदी - प्रतिष्ठा के समय इसकी भी प्रतिष्ठा करायी । इस मन्दिर में भगवान् चन्द्रप्रभुकी श्वेत पाषाणको पौने तीन फुटकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । इसके बायीं ओर एक मन्दिर है जिसमें भगवान् महावीरकी पौने दो फुटकी श्वेत पाषाणकी प्रतिमा है । सन् १९३६ में इसकी प्रतिष्ठा हुई । बायीं ओर आलेमें मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा तथा दायीं ओर सुधर्मा स्वामीके चरण विराजमान हैं ।
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इस मन्दिरके बिलकुल निकट एक मन्दिर श्वेताम्बरोंका है। इसमें भगवान् मुनिसुव्रतनाथकी मूर्ति विराजमान है ।
यति मदनकीर्ति विरचित 'शासन - चतुस्त्रिशिका' (वि. सं. १२८५ ) से विपुलगिरिपर एक ऐसे दिगम्बर जिनबिम्बका वर्णन मिलता है जो १२ योजन तक दिखाई देता था । श्लोक इस प्रकार है
सिक्ते सत्सरितोऽम्बुभिः शिखरिणः सम्पूज्य देशे वरे सानन्दं विपुलस्य शुद्धहृदयैरित्येव भव्यैः स्थितैः । निर्ग्रन्थं परमार्हतो यदमलं बिम्बं दरीदृश्यते यावद् द्वादशयोजनानि तदिदं दिग्वाससां शासनम् ||३३||
अर्थात् निकटवर्ती नदीके पवित्र जलसे अभिषिक्त विपुलगिरिके श्रेष्ठ प्रदेशमें स्थित शुद्ध हृदयवाले भव्यों द्वारा बड़े आनन्दसे पूजित होकर जो अरहन्त देवका निर्ग्रन्थ एवं निर्मल दिगम्बर जिनबिम्ब बारह योजन तक देखा जाता है सो यह दिगम्बर शासनका माहात्म्य है ।
यह विपुलाच पर विराजमान किसी ऐसी मूर्तिका अतिशय है कि वह बारह योजन तक दिखाई देती रही है । सम्भव है, वह मूर्ति विशालकाय रही हो और वह विपुलगिरिके शिखरपर विराजमान हो जिससे वह बारह योजन तक दिखलाई देती हो । किन्तु इतनी विशाल अवगा - नावाली कोई मूर्ति यहाँ कभी रही हो, इसके कोई प्रमाण या साक्ष्य आज उपलब्ध नहीं हैं । उस मूर्ति क्या हुआ, इसके सम्बन्ध में भी कोई प्रमाण नहीं मिलता । किन्तु तेरहवीं सदी के यतिवर्य मदनकीर्ति के विवरणसे ऐसा लगता है कि यह मूर्ति उनके कालमें विद्यमान थी और सम्भवतः इस चमत्कारी मूर्तिके दर्शन भी उन्होंने किये थे।
भगवान् महावीरका सर्वप्रथम उपदेश इसी विपुलगिरिपर हुआ था और उन्होंने यहीं पर आजसे २५३० वर्षं पूर्व श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको धर्मचक्र प्रवर्तन और धर्मं- तीर्थ की स्थापना की थी । इसीकी स्मृतिमें सन् १९४४ में यहाँ पर वीर सेवा मन्दिरके तत्त्वावधान में वीर शासन जयन्ती मनायी गयी थी । उसके स्मारकके रूपमें यहाँ एक स्तम्भपर अभिलेख अंकित किया गया था, जिसपर यह लिखा हुआ है -
"In commemoration of the great event of the delivery of the first discourse by Lord Mahavir on this secred spot of the Vipulgiri at Rajgir on this auspicious day, Shravan Krishna Pratipada.
7th July 1944
रत्नागिरि
यह दूसरा पर्वत है । पहले पर्वतसे यह दो मील पड़ता है, जिसमें एक मीलकी उतराई है और फिर एक मीलकी चढ़ाई। मार्ग ऊबड़-खाबड़ है । यहाँ बाबू धर्मकुमारजी के नामपर ब्रह्मचारिणी पण्डिता चन्दाबाईजी आरा द्वारा निर्मित शिखरबन्द मन्दिर है जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम
भाग २ - १३