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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ जिनकी मूर्तिको ले आया था, उस घटनाके प्रायः पौने तीन सौ वर्ष बाद खारवेल उस मूर्तिको अपने साथ ले गया। और इस तरह अपने राष्ट्रीय अपमानका बदला चुकाया। राजगृहसे सम्बन्धित बादकी एक और घटना मिलती है जिसके अनुसार विक्रमकी नौवीं शताब्दीमें कन्नौज नरेश आभने राजगृहपर चढ़ाई की। वह बारह वर्ष तक राजगृहका घेरा डाले पड़ा रहा। किन्तु राजगृहवासियोंने हार नहीं मानी। तब इसके पौत्र भोजराजने राजगृहको जीता और जीतनेके बाद इस प्राचीन नगरीमें आग लगा दी, जिससे यह जलकर राखका ढेर बन गयी। इस प्रकार यह ऐतिहासिक नगरी राजनैतिक आकाशसे सदाके लिए लुप्त हो गयी। पंचशैल जैन वाङ्मयमें तथा अन्य साहित्यमें राजगृहके कई नाम मिलते हैं जैसे गिरिब्रज, क्षितिप्रतिष्ठ, वसुमती, चणकपुर, ऋषभपुर, कुशाग्रपुर, राजगृह । इसे पंचशैल भी कहा जाता था। 'षट्खण्डागर्म में लिखा है पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वहुत्तमे । णाणा दुम समाइण्णे देव-दाणव-वंदिदे ।। महावीरेणत्थो कहिओ भवियलोयस्स। अर्थात् पंचशैलपुर ( राजगृह ) में रमणीय, नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, देव और दानवोंसे वन्दित और सर्व पर्वतोंमें उत्तम ऐसे विपुलाचल पर्वतके ऊपर भगवान् महावीरने भव्य जीवोंको उपदेश दिया। इसी आशयको व्यक्त करनेवाली गाथा 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें भी मिलती है सुरखेयरमणहरणे गुणणामे पंचसेलणयरम्म। विउलम्मि पव्वदवरे वीरजिणो अट्ठकत्तारो ॥ वास्तवमें राजगृहको पंचशैलपुर इसलिए कहा जाता है क्योंकि वहाँ पाँच पर्वत हैं । विभिन्न ग्रन्थोंमें इन पाँच पर्वतोंके नामोंमें कुछ अन्तर मिलता है। महाभारत ( सभा पर्व २१ ) में इनके नाम वैभार, वराह, वृषभ, ऋषिगिरि और चैत्यक आये हैं। पालि ग्रन्थोंमें गिज्झकूट, इसिगिलि, वैभार, वैपुल्ल और पाण्डव नाम दिये हैं । ___ 'षट्खण्डागम'में इन पर्वतोंके नाम ऋषिगिरि, वैभार, विपुलगिरि, छिन्न और पाण्डु दिये हैं। उनकी स्थिति इस प्रकार बतायी है पूर्व दिशामें चौकोर आकारवाला ऋषिगिरि नामका पर्वत है। दक्षिण दिशामें वैभार और नैऋत्य दिशामें विपुलाचल नामके पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत त्रिकोण आकारवाले हैं। पश्चिम, वायव्य और सौम्य दिशामें धनुषके आकारवाला फैला हुआ छिन्न नामका पर्वत है। ऐशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है। ये सब पर्वत कुशके अग्रभागोंसे ढके हुए हैं। १. विविध तीर्थकल्प-वैभारगिरिकल्प । २. षट्खण्डागम १।१।१ (सत्प्ररूपणा १), पृष्ठ ६२। ३. तिलोयपण्णत्ति ११६५ । ४. ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः। विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थितौ तत्र ॥५३॥ धनराकारश्छिन्नो वारुणवायव्यसौम्यदिक्षु ततः । वृत्ताकृतिरैशान्यां पाण्डुः सर्वे कुशाग्रवृताः ॥५४॥-षट्खण्डागमसत्प्ररूपणा १, पृ. ६२ । चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो। णइरिदिदिसाए विउलो दोण्णि तिकोणट्रिदायारा ॥ चावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु। ईसाणाए पंडू वण्णा सव्वे कुहाग्गपरियरणा॥-तिलोयपण्णत्ति, ११६६-६७ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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