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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अजातशत्रके बाद उसका पुत्र उदायि गद्दीपर बैठा । किन्तु अब मगध साम्राज्यका विस्तार बहुत हो गया था। अतः सुविधाकी दृष्टिसे उसने पाटलिग्रामके स्थानपर पाटलिपुत्र नामक नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया।
इसके पश्चात् राजगृहको कभी यह राजनैतिक गौरव प्राप्त नहीं हो सका और मगध साम्राज्यका केन्द्र राजगृहसे हटकर पाटलिपुत्र बन गया।
__ इसके पश्चात् हमें राजगृहके नामकी गूंज कलिंग-नरेश खारवेलके हाथी गुम्फा लेखकी सातवीं-आठवीं पंक्तिमें सुनाई देती है । वह मूल पंक्ति इस प्रकार पढ़ी गयी है
अठमे च वसे महता सेन [1]....गोरधागिरि
घातापयिता राजगहं उपपीडपयति एतिन च कंमपदान स [ ] नादेन....सेन-वाहने विपमुचितुं मधुरं अपमातो यवनरा [ ज] [डिमित ] .. यछति....पलव
अर्थ-आठवें वर्ष महासेना....गोरथगिरिको तोड़कर राजगृहको घेर दबाया। इनके कर्मोके अवदान ( वीरकथा ) के सनादसे यवन राजा दिमित ( दिमेत्र ) घबड़ायी सेना और वाहनोंको मुश्किलसे बचाकर मथराको भाग गया। __ जब मौर्य साम्राज्यका अन्त होने लगा और अन्तिम मौर्य सम्राट् बृहद्रथ ( ई. पू. १९५१८८) को मारकर उसका सेनापति पुष्यमित्र पाटलिपुत्रकी गद्दीपर बैठा, उस समय दक्षिणमें सातवाहनोंने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। उन्होंने प्रतिष्ठान (पैठण) को अपनी राजधानी बनाया और महाराष्ट्र-कर्णाटकपर अधिकार कर लिया। लगभग इसी समय कलिगमें भी चेदिवंशी ऐलोंने अपने स्वतन्त्र राज्यकी स्थापना कर ली। इस वंशकी तीसरी पीढ़ीमें सम्राट खारवेल हुआ। इस युगकी राजनीतिमें यह सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। उसने अपने जमानेके प्रायः सभी राजाओंको जीतकर विशाल साम्राज्यकी स्थापना की। उसकी गौरव-गाथाएँ खण्डगिरि-उदयगिरिको हाथी गुम्फाकी एक शिलापर अंकित हैं। इस ऐतिहासिक महत्त्वके शिलालेखसे ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण कलिग विजय करके उसने सातकणि, बहसतिमित्र अथवा बृहस्पतिमित्र, पश्चिमके मूषिक, रठिकोंके भोज, उत्तरापथ (पंजाब ), तमिल देश, पिथुण्ड आदि सभी दिशाओंके देशों और राजाओंको हराया और मगधमें सुगांगेय ( मौर्योंके महलका नाम ) तक पहुँचकर बहसतिमित्रको अपने पैरोंमें गिराया।
इन्ही दिनों ( लगभग १२० ई. पू.) वारत्रीके यवनराजा एवुथिदिनने हिन्दूकुश पर्वतको लाँधकर हरैव ( हेरात ), कपिश, हरउवती ( कन्दहार ) और जरंक या दंगियान ( सोस्तान ) के प्रदेश दखल कर लिये । उसके बाद दिमेत्र ( डैमिट्रियस ) ने विशाल यवन सेना लेकर प्रबल वेगसे भारतपर आक्रमण किया। दिमेत्रने मद्र देशको राजधानी शाकल ( स्यालकोट ) को लेकर पंचाल, मथुरा और साकेत ( अयोध्या ) को ले लिया। उसने मध्यमिका ( चित्तौड़से छह मील उत्तर-पूर्वमें प्राचीन नगरीको भी जीत लिया। सचमुच ही इतनी बड़ी विजय नगण्य नहीं कही जा सकती।
तभी खारवेल कलिंगसे राजपथ छोड़कर दुर्गम पहाड़ी मार्गोंसे होता हुआ गोरथगिरि ( गयाके पास बराबर पहाड़ी ) पहुँचा और उसे जीतकर राजगृहपर घेरा डाल दिया। दिमित्रने खारवेलके इस अभिमानकी बात सुनी तो वह इतना आतंकित हुआ कि अपनी सेना लेकर मथुरा लौट गया। किन्तु खारवेलने उसे छोड़ा नहीं, बल्कि पंजाब तक उसका पीछा किया और भारतसे बाहर भगा दिया।
सम्राट खारवेलने इसके बाद राजगृहपर फिर एक बार आक्रमण किया। इस आक्रमणमें उसने वहसतिमित्रको अपने पैरों में गिराया तथा नन्द वंशका महापद्मनन्द कलिंगसे जिस कलिंग