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बिहार-बंगाल- उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थ
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बार भी नहीं कहा । वनमें पहुँचने पर मुनि वारिषेणने उसे उपदेश दिया । परिणाम यह हुआ कि पुष्पडालने उनसे मुनिदीक्षा ले ली ।
पुष्पडाल मुनि तो बन गया किन्तु उसका मोह अपनी काणी स्त्रीके प्रति बना रहा। बारह वर्ष बीत गये । एक दिन भगवान् महावीरके समवसरण में दोनों बैठे हुए थे । कोई गन्धर्व कामकी निन्दामें पद्य पढ़ रहा था । उसे सुनकर पुष्पडालकी दबी हुई कामवासना भड़क उठी और वह अपने नगरकी ओर चल दिया । वारिषेण भी उसके साथ चले । वारिषेणके कहनेपर पुष्पडाल वारिषेणके घर चलने को राजी हो गया । जब दोनों रानी चेलनाके महलोंमें पहुँचे तो चेलनाको सन्देह हुआ कि कहीं मेरा पुत्र चारित्रसे विचलित होकर तो घर नहीं लौटा है । परीक्षा के लिए उसने दो आसन बिछाये - एक काठका, दूसरा सोनेका । वारिषेण सहज भावसे काठके पाटेपर बैठ गये ।
थोड़ी देरमें वे सारी स्त्रियाँ, जो वारिषेणको ब्याही थीं, विविध आभूषणोंमें सुसज्जित होकर वहाँ आयीं, मानो स्वर्गसे अप्सराओंका दल अवतीर्ण हुआ हो । जितेन्द्रिय वारिषेण बड़े समता भावसे पुष्पडालकी ओर संकेत करते हुए बोले - " देख रहे हो पुष्पडाल ! रूपका यह तरंगित सागर ! क्या इनमें से किसीसे तेरी सोमिला समता रखती है ? मैंने इन्हें छोड़ दिया । मैंने इतना विशाल राज्य और वैभत्र छोड़ दिया । और एक तू है जो अपनी काणी सोमिलाका मोह नहीं छोड़ सका ।"
• सुनते ही पुष्पडालकी आँखें खुल गयीं। वह गुरुके चरणों में गिर पड़ा - "गुरुदेव ! मुझे प्रायश्चित्त देकर आत्म-कल्याणका अवसर दें । "
दोनों विपुलाचलपर लौट गये और घोर तप करने लगे । वारिषेण सर्वार्थसिद्धि विमान में देव हुआ । पुष्पडाल भी देव बना ।
ईसवी सन्के प्रारम्भ या पूर्वमें सोपारासे एक आर्यिका संघ यात्राके लिए यहाँ आया था । उसमें धीवरी पूतिगन्धा भी थी । वह क्षुल्लिका थी । यहाँ नीलगुफा में उसकी समाधि हुई थी।
मगध साम्राज्यका केन्द्र
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भगवान् मुनिसुव्रतनाथ हरिवंशके सूर्य थे । उनके पश्चात् उनका पुत्र सुव्रत हुआ । उसने राजगृहपर शासन किया। उनका पुत्र दक्ष हुआ, जिसकी स्त्री इलासे ऐलेय पुत्र और मनोहरी कन्या हुई । दक्षने अपनी कन्याके ही सौन्दर्यपर मुग्ध होकर उससे विवाह कर लिया । इससे रुष्ट होकर इलादेवी अपने पुत्र ऐलेयको लेकर चली गयी और एक नया नगर बसाया, जिसका नाम इलावर्धन रखा गया । ऐलेय प्रतापी राजा था । उसने दिग्विजय करके राज्यका विस्तार किया । उसने बंग देशमें ताम्रलिप्ति नगर बसाया तथा नर्मदा नदीके तटपर माहिष्मती नगर बसाया । बादमें ये दोनों ही नगर इतिहासमें बड़े प्रसिद्ध हुए ।
आगे चलकर इस वंशमें वसु नामका राजा हुआ । यह बड़ा सत्यवादी था । किन्तु वह नारद और पर्वत विवादमें पर्वतका पक्ष लेनेके लिए झूठ बोला और 'अजैर्यष्टव्यं' इसका अर्थं यह किया कि बकरोंसे यज्ञ करना चाहिए । परिणाम यह हुआ कि तबसे यज्ञों में असंख्य जीवोंकी हिंसा होने लगी और वसु नरक में गया ।
१. नयसेन विरचित धर्मामृत ।