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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ तीव्र भावोंके कारण श्रेणिकने उस समय सातवीं नरकायुका बन्ध कर लिया। इस घटनाका जिक्र राजा श्रेणिकने रानीसे भी किया। रानी सुनते ही व्याकुल हो गयी। तत्काल वह राजाके साथ उस स्थानपर पहुंची, जहाँ मुनिराज विराजमान थे। देखा कि मुनिके ऊपर चींटियाँ फिर रही हैं । कुछ काट रही हैं। कई जगह घाव कर दिये हैं। रानीको बड़ा दुख हुआ। उसने साड़ीके पल्लेसे सारा शरीर साफ किया और मुनिराजको नमस्कार किया । राजा श्रेणिक सब देखकर बड़ा प्रभावित हुआ। वह भी मुनिके चरणोंमें झुक गया। राजाने जब मरा साँप उनके गलेमें डाला था, तब महर्षिने शाप नहीं दिया था और जब राजाने नमस्कार किया, तब उन्होंने प्रसन्नता प्रकट नहीं की। राजाने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। परिणाम इतने निर्मल हुए कि सातवें नरककी बाँधी हुई आयु पहले नरक की रह गयी। बादमें क्षायिक सम्यक्त्व धारण करके तीर्थंकर प्रकृतिका बन्धं किया। श्रेणिक भगवान् महावीरके प्रधान श्रोता भी थे। जबतक भगवान्का समवसरण राजगृहीमें रहता था, वे उनको सभामें जाते थे और वहाँ अनेक विषयोंपर उनसे प्रश्न करते थे। ___ महारानी चेलनाका पुत्र वारिषेण बड़ा धर्मात्मा था। वह रात्रिको श्मशानमें जाकर कायोत्सर्ग किया करता था। राजगृहका कुख्यात चोर विद्युच्चोर अपनी प्रेयसी वेश्या मगध सुन्दरीके आग्रह करनेपर श्रीकीर्ति नामक श्रेष्ठीका हार चुराने गया। जब वह हार चुराकर निकला तो पहरेदारोंने उसे देख लिया। वे उस चोरके पीछे भागे । चोर भागते-भागते श्मशानमें पहुँचा और पकड़े जानेके भयसे वह हार वारिषेण राजकुमारके आगे डालकर कहीं छिप गया। सिपाही पीछा करते हुए आये । उन्होंने वारिषेणके पास हारको पड़ा हुआ देखा तो उन्होंने वारिषेणको ही चोर समझकर पकड़ लिया और राजा श्रेणिकके सामने ले जाकर पेश किया। महाराजको राजकुमारसे ऐसे कुकृत्यको आशा नहीं थी। अतः आशाके विपरीत यह कृत्य देखकर महाराजको बड़ा क्रोध आया और कुमारको फाँसीको सजा सुना दी। वधिक कुमारको श्मशानमें ले गये और राजाज्ञानुसार उन्होंने कुमारके वधके लिए तलवार गरदनपर मारी। किन्तु कैसा चमत्कार कि जहाँ तलवारकी चोट पड़ी, वहाँ फूलोंकी माला हो गयी, वधिक दंग रह गये। उन्होंने राजा तक यह समाचार पहुंचाया। राजा श्मशानमें स्वयं आये। अनेक प्रजाजन भी आये। राजाने अपनी आँखोंसे यह चमत्कार देखा। उन्होंने राजकुमारसे अपने अविवेकके लिए क्षमा मांगी और महलोंमें चलनेका आग्रह किया। वारिषेण बोले-"आपका कोई अपराध नहीं है। आपने तो अपने कर्तव्यका पालन ही किया था। यह मेरे अशुभ कर्मका फल था। किन्तु मैंने संसारका असली रूप देख लिया है। इसलिए मैं अब घरपर न जाकर जिनेन्द्रदेवकी शरणमें जाऊँगा और आत्म-हित करूँगा।" यों कहकर वे वनकी ओर चल दिये और श्री सूरदेव मुनिके पास जाकर जिन-दीक्षा ले ली। एक बार मुनि वारिषेण विहार करते हुए पलाशकूट नगरमें पहुँचे। वे जब आहारको निकले तो उनके बालमित्र पुष्पडालने' नवधा भक्तिके साथ उनको आहार दिया। आहार करनेके पश्चात् जब मुनि जाने लगे तो मित्रता और शिष्टाचारके नाते पुष्पडाल उन्हें पहुँचाने गया। वह बचपनकी घटनाएँ सुनाने लगा। सुनाते-सुनाते वे वनमें पहुंच गये किन्तु मुनिने उसे लौट जानेके लिए एक १. आराधना कथाकोष, भाग १, कथा १९। २. हरिषेण कथाकोष-कथा १० के अनुसार इसका नाम सोमशर्मा था।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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