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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी। जादो तस्सि सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो ।। तम्मि कदकम्मणासे जंबूसामि त्ति केवली जादो।
तत्थ वि सिद्धिपवण्णे केवलिणो णस्थि अणुबद्धा ।। धर्म-चक्र-प्रवर्तन-क्षेत्र
राजगृहका विपुलाचल इस दृष्टिसे अत्यधिक श्रद्धाका केन्द्र बन गया कि भगवान् महावीरको दिव्य ध्वनि सर्वप्रथम यहीं खिरी थी; अन्तिम तीर्थकरने धर्म-चक्रका प्रवर्तन इसी पावन भूमि पर किया था और धर्म-तीर्थकी प्रवृत्ति यहींपर हुई।
भगवान् महावीरको जृम्भिक ग्रामके समीप ऋजुकूला नदीके तटपर मनोहर वनमें साल वृक्षके नीचे वैशाख शुक्ला दशमीके दिन अपराह्न कालमें घातिया कर्मो के नाशसे केवल ज्ञान हो गया । उसी समय सौधर्म स्वर्गका इन्द्र चारों प्रकारके देवोंके साथ आया और उसने ज्ञानकल्याणककी पूजा की। इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवसरणकी अद्भुत रचना की। किन्तु भगवान्की दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। तब इन्द्रने अवधिज्ञानसे जाना कि दिव्य ध्वनिमें इन्द्रभूति गौतम निमित्त बनेंगे। इन्द्र तत्काल इन्द्रभूतिके गाँवमें गया। इन्द्रभूति अत्यन्त अभिमानी व्यक्ति था, वह वेदवेदांगका पूर्ण ज्ञाता था। उसका शरीर अतिशय देदीप्यमान था। इन्द्र किसी उपायसे इन्द्रभूतिको तीर्थंकर महावीरके पास ले गया, जो उस समय विपुलाचलपर विराजमान थे। इन्द्रने प्रेरणा की कि "हे इन्द्रभूति, तुम जीवतत्त्वके विषयमें जो कुछ पूछना चाहते थे, भगवान्से पूछ लो।" इन्द्रभूतिका अभिमान तो मानस्तम्भको ही देखकर गलित हो चुका था। अब भगवान्के समक्ष आते ही उन्होंने भगवान्के चरणोंमें नमस्कार किया और संयम धारण कर लिया। तभी भगवान्की दिव्य ध्वनि हुई, उन्होंने जीवका स्वरूप विस्तारपूर्वक बताया। ६६ दिन से दिव्य ध्वनि नहीं हो रही थी। क्योंकि तीर्थंकरकी वाणीको झेलनेवाला कोई गणधर उस समय तक नहीं था। गौतम इन्द्रभूतिमें गणधर बननेकी पात्रता थी। उनके पाँच सौ ब्राह्मण-शिष्योंने भी तत्काल संयम धारण कर लिया। परिणामोंकी विशुद्धि होनेके कारण गौतमको उसी समय आठ लब्धियाँ प्राप्त हो गयीं, चार ज्ञान ( मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान ) प्राप्त हो गये। समस्त अंगों और पूर्वोका ज्ञान हो गया।
___ भट्टारक महावीर स्वामीके उपदेशसे उन्हें श्रावण बदी प्रतिपदाके दिन पूर्वाह्न कालमें समस्त अंगोंके अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन अपराल कालमें अनुक्रमसे पूर्वोके अर्थ
और पदोंका स्पष्ट बोध हो गया। बोध होनेपर उन्होंने उसी रात्रिके पूर्व भागमें अंगोंकी और पिछले भागमें पूर्वोकी ग्रन्थ-रचना की । ये भगवान्के प्रथम और मुख्य गणधर बने।
'षट्खण्डागम' नामक सिद्धान्त ग्रन्थ में भगवान् महावीरकी इस प्रथम दिव्य ध्वनि या उपदेशको तीर्थ-प्रवर्तनकी संज्ञा दी है
इम्मिस्से वसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए। चोत्तीस वास सेसे किंचि विसेसूणए संते ।।५५।। वासस्स पढम मासे पढमे पक्खमि सावणे वहुले। पाडिवद पुव्व दिवसे तित्थुप्पत्ती हु अभिजिमि ॥५६॥
१. उत्तरपुराण, पर्व ७४, श्लोक ३४८ से ३७२।