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बिहार-बगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ मेतार्य-माता वरुणदेवा, पिता दत्त, वत्स जनपदमें तुंगिक सन्निवेश, कौण्डिन्य गोत्र । ३०० शिष्य थे। परलोक है या नहीं, यह सन्देह था, जिसका निवारण महावीर भगवान्ने किया। इनकी आयु ६२ वर्षकी थी। ३६ वर्ष गृहस्थ, १० वर्ष छद्मस्थ और १६ वर्ष केवली रहे।
प्रभास-माता अतिभद्रा, पिता बल, राजगृहके रहनेवाले, कौण्डिन्य गोत्र । ३०० शिष्य थे। इन्हें निर्वाणके सम्बन्धमें शंका थी। जिसका समाधान भगवान् महावीरने कर दिया। गणधर प्रभासकी आयु ४० वर्षकी थी। १६ वर्ष कुमारकाल, ८ वर्ष मुनि अवस्थामें छद्मस्थ और १६ वर्ष केवली अवस्था ।
इस प्रकार इन विद्वानोंमें-से प्रत्येकके मनमें कोई न कोई शंका' थी। किन्तु ये अभिमानवश, मान-मर्दन करनेके उद्देश्यसे अथवा जिज्ञासावश विपुलाचलपर विराजमान तीर्थंकर महावीरके पास जाते रहे। किन्तु सर्वज्ञ भगवान्का ऐसा लोकातिशयी व्यक्तित्व कि विरोधी भी भक्त बन गये, उन्हें मनकी शंकाका समाधान मिल गया और महावीरके चरणोंमें मुनि-दीक्षा लेकर कृतार्थता अनुभव की। फिर प्रभुने इनको अपना गणधर नियुक्त किया।
ग्यारह गणधरोंमें सभी केवलज्ञानी हुए और सभी मुक्त हुए। उनकी मुक्तिका क्षेत्र कौनसा था, इसके सम्बन्धमें निम्नलिखित गाथा स्पष्ट प्रकाश डालती है
परिणिव्वुया गणहरा जीवंते णायए णवजणाउ। इंदभूई सुहम्मो य रायगिहे निव्वुए वीरे ॥६५८।।
-आवश्यक सूत्र नियुक्ति-हरिभद्र वृत्ति, पृ. २५६ अर्थात् भगवान् महावीरके जीवन-कालमें नौ गणधर मुक्त हो गये । और भगवान् महावीरके निर्वाण-गमनके पश्चात् इन्द्रभूति और सुधर्मको निर्वाण प्राप्त हुआ। ये सभी ग्यारह गणधर राजगृहसे मुक्त हुए।
इसी प्रकार 'कल्पसूत्र में भी इसी आशयको व्यक्त करनेवाला निम्नलिखित पाठ मिलता है-'सव्वेऽवि णं एते समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारसवि गणहरा दुवाल-संगिणो चउदसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधारगा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा। थेरे इंदभूई थेरे अज्जसुहम्मे य सिद्धिगए महावीरे पच्छा दुण्णिवि थेरा परिनिव्वुया।
-श्रीकल्पसूत्रम् समयसुन्दरगणि विरचित कल्पलता व्याख्या सहितम्, व्याख्यान ८, पृ. २१६
__ उत्तर पुराणमें गौतम स्वामीके निर्वाण-स्थलके सम्बन्धमें स्पष्ट उल्लेख है। वे स्वयं राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि मैं विपुलाचलसे निर्वाण प्राप्त करूँगा।।
___ यह कैसे संयोग की बात है कि जिस दिन भगवान् महावीर सिद्ध हुए, उसी दिन गौतम गणधरको केवलज्ञान हुआ। जिस दिन गौतम सिद्ध हुए, उसी दिन सुधर्म स्वामी केवली हुए। सुधर्म स्वामी जिस दिन मुक्त हुए, उसी दिन जम्बूस्वामी केवली हुए। फिर उनके बाद कोई अनुबद्ध केवैली नहीं हुए। इस प्रसंग की चर्चा तिलोयपण्णर्ति ग्रन्यमें इस प्रकार दी गयी है
१. जीवे कम्मे तज्जीव भूम तारिसय बन्धमोक्खे य। देवा जेरइए या पुण्णे परलोय जेव्वाणे ॥५९६॥ -आवश्यक सूत्र, हरिभद्रीय वृत्ति, भाग १। २. गौतम स्वामीके सम्बन्धमें मान्यता प्रचलित है कि वे गुणावा ( नवादाके निकट ) से मुक्त हुए। इस मान्यताका क्या आधार है, यह अन्वेषणीय है। उत्तरपुराण ७६।५१७ का अवतरण निम्न प्रकार है- गत्वा विपुलशब्दादिगिरी प्राप्स्यामि निर्वृतिम् ॥ ३. उत्तरपुराण, पर्व ७६, श्लोक ५१५ से ५१९ तक। ४. तिलोयपण्णत्ति ४।१४७६-७७ ।
भाग २-११