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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
अन्धकवष्णि और भोजकवष्णि द्वारा मनिदीक्षा धारण करनेके पश्चात् मथुराका शासन-सूत्र उग्रसेनने और शौरीपुरका शासन-सूत्र समुद्रविजयने सँभाला। उग्रसेनके कंस नामक पुत्र तथा देवकी, और राजमती ( जिन्हें राजुल भी कहते हैं ) पुत्रियाँ हुईं। समुद्रविजयकी महारानी शिवा देवीसे नेमिनाथ हुए और समुद्रविजयके सबसे छोटे भाई वसुदेवके बलराम और कृष्ण हुए। नेमिनाथ बाईसवें तीर्थंकर थे। बलराम और कृष्ण क्रमशः अन्तिम बलभद्र और नारायण थे। इन महापुरुषोंके उत्पन्न होनेके पूर्वसे ही शौरीपुरका प्रभाव, वैभव आदि बढ़ने लगा था।
कंसने अपने पिताको नगरके मुख्यद्वारके ऊपर कारागारमें डाल दिया। उस युगमें सर्वाधिक प्रभावशाली नरेश जरासन्ध था, जो राजगहका अधिपति था। जरासन्धने अपनी पुत्री जीवद्यशाका विवाह वसुदेवके कहनेसे कंसके साथ कर दिया। कंस वसुदेवके इस आभारसे दबा हुआ था। अतः उसने अपनी बहन देवकीका विवाह वसुदेवके साथ कर दिया और अत्यन्त आग्रह करके वसुदेव और देवकीको मथुरा रहनेके लिए राजी कर लिया। इस समय तक वस्तुतः मथुरा और शौरीपुर राजगृह नरेश जरासन्धके माण्डलिक राज्य थे।
निमित्तज्ञानसे यह जानकर कि कृष्ण द्वारा मेरा वध होगा, कंसने कृष्णको मारनेके लिए कई बार गुप्त प्रयास किये, किन्तु वह सफल नहीं हो सका। तब उसने कृष्णको मल्लयुद्धके लिए मथुरा बुलाया। वसुदेवने भी आशंकित हो शौरीपुरसे समुद्रविजय आदि भाइयोंको बुला लिया। मथुरामें कृष्णने कंसके मल्लोंको अखाड़े में पछाड़कर कंसको भी समाप्त कर दिया। अब यादवोंका राज्य एक प्रचण्ड शक्तिके रूपमें भारतके राजनीतिक मानचित्रपर उभरा। मथुरा उसका शक्ति केन्द्र बन गया। उस समय भी महाराज समुद्रविजय शौरीपुरमें रहकर राज्य-शासन चला रहे थे। ___अब जरासन्धकी ओरसे यादवोंपर आक्रमण होने लगे। एक बार जरासन्ध विशाल वाहिनी लेकर स्वयं युद्ध करने चला। साथमें अनेक राजा थे। उस समय वृष्णिवंश और भोजवंशके प्रमुख पुरुषोंने रणनीतिपर विचार किया और निश्चय किया कि
स्वीकृत्य वारुणीमाशां कानिचिद् दिवसानि वै। विगृह्यासनमेवं हि कार्यसिद्धिरसंशया ॥
-हरिवंश पुराण, ४०।१७ अर्थात् इस समय हम लोगोंके लिए पश्चिम दिशाकी ओर जाकर कुछ दिनों तक चुप बैठ रहना ही उचित है। ऐसा करनेसे कार्यकी सिद्धि अवश्य होगी।
यह निश्चय होते ही वृष्णिवंशी और भोजवंशी लोगोंने मथुरा और शौरीपुरसे प्रस्थान कर दिया। इस निष्क्रमणके बारेमें आचार्य जिनसेन लिखते हैं
माथुर्यः शौर्यपूर्यश्च वीर्यपूर्यः प्रजास्तदा । समं स्वाम्यनुरागेण स्वयमेव प्रतस्थिरे ।
-हरिवंशपुरण, ४०।२१ अष्टादशेति संख्याताः कुलकोटयः प्रमाणतः । अप्रमाणधनाकीर्णा निर्यान्ति स्म यदुप्रियाः ।।
-हरिवंशपुराण, ४०।२३ अर्थात् मथुरा, शौरीपुर और वीर्यपुरकी प्रजाने स्वामीके प्रति अनुरागवश उनके साथ ही प्रस्थान कर दिया। उस समय अपरिमित धनसे युक्त अठारह कोटि यादव शौरीपुरसे बाहर चले गये थे।