________________
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ .
कार्लाइलने भी इस सम्बन्धमें अपनी रिपोर्टमें इसी आशयका विवरण दिया है। उन्होंने लिखा है कि किले और यमनाके बीचमें काले पाषाणके तीन स्तम्भ और छतके पत्थर मिले थे। मेरे विचारमें ये स्तम्भ जैन मन्दिरके रहे हैं। उनकी आकृति और शैली अन्य प्राचीन जैन मन्दिरोंके स्तम्भोंसे मिलती-जुलती है। तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति भी इसी स्थानसे निकली थी। . यह मूर्ति लखनऊ म्यूजियममें सुरक्षित है।
शौरीपुर पावन क्षेत्र
शौरीपूर (प्राचीन नाम शौर्यपुर ) में बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथके गर्भ और जन्मकल्याणक हुए थे। हरिवंश पुराणमें इस सम्बन्धमें निम्न प्रकार उल्लेख है
जिनस्य नेमेस्त्रिदिवावतारतः पुरैव षण्मासपुरस्सरा सुरैः।।
प्रवर्तिता तज्जननावधिमुंहे हिरण्यवृष्टिः पुरुहूतशासनात् ॥३७॥२॥ -भगवान् नेमिनाथके स्वर्गावतारसे छह माह पहलेसे लेकर जन्म पर्यन्त पन्द्रह मास तक इन्द्रकी आज्ञासे (शौरीपुर निवासी) राजा समुद्रविजयके घर देवोंने रत्नोंकी वर्षा जारी रखी।
इसी प्रकार 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें भगवान् नेमिनाथके जन्मके सम्बन्धमें आवश्यक ज्ञातव्य बातोंपर प्रकाश डालते हए लिखा है
सउरीपुरम्मि जादो सिवदेवीए समुद्दविजएण।
__वइसाह तेरसीए सिदाए चित्तासु णेमिजिणो ॥५४७।। -नेमि जिनेन्द्र शौरीपुरमें माता शिवदेवी और पिता समुद्रविजयसे वैशाख शुक्ला १३ को चित्रानक्षत्रमें उत्पन्न हुए।
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथने शौरीपुर नगरमें राजा समुद्रविजयके यहाँ जन्म लिया। इसके उपलक्ष्यमें इन्द्रों और देवोंने भगवान्के गर्भ और जन्म कल्याणकोंका महान् उत्सव शौरीपुरमें मनाया। भगवान्के इन दो कल्याणकोंके कारण यहाँकी भूमि अत्यन्त पावन हो गयी।
भगवान्के इन दो कल्याणकोंके अतिरिक्त यहाँपर कई अन्य मुनियोंको केवलज्ञान और निर्वाण-प्राप्तिके उल्लेख भी पौराणिक साहित्यमें उपलब्ध होते हैं।
very massive and elaborately sculptured statue of black basalt representing Munisubratnath, the 20th Jain Tirthankar with a dedicatory inscription in Kutila characters dated Sambat 1063 or A. D. 1006.
There can be no doubt that these pillars formed the collonnade to the entrance from the river, of some ancient Jain temple, which was probably
pulled down and destroyed, when the fort was built.-page 69. १. रविषेण कृत पद्मपुराण सर्ग २०१५८, जयसिंहनन्दी कृत वरांगचरित्र २७।८५ ।