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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ दायें हाथकी वेदीमें मटमैले पाषाणकी दो भव्य चौबीसी हैं। एक शिलाखण्डमें बीच में एक भव्य तोरणके नीचे पार्श्वनाथकी मूर्ति है। इधर-उधर दो-दो पंक्तियोंमें १०-१० प्रतिमाएँ हैं। इनके ऊपर एक-एक प्रतिमा विराजमान है। मध्यवर्ती प्रतिमाके ऊपर दो हाथी बने हुए हैं। उनके ऊपर एक प्रतिमा विराजमान है। ये चौबीसी वि० संवत् १२७२ माघ सुदी ५ को प्रतिष्ठित हुई थीं। ___ यहाँका हस्तलिखित शास्त्र-भण्डार अत्यन्त समृद्ध है। इसमें लगभग दो हजार हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। यहाँ पाषाण और धातुकी मूर्तियोंकी संख्या लगभग छह सौ है। प्राचीन कालमें जैनोंका प्रभाव मुगलकालसे पूर्व और उस कालमें भी इस नगरमें शासन और प्रजा पर जैनोंका बड़ा प्रभाव रहा। बादशाह अकबरके नवरत्नोंमें एक साहू टोडर भी थे जो बादशाहके कोषाध्यक्ष थे तथा टकसालके काममें निपुण थे। वे राज्यमें आर्थिक मामलोंके विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्होंने राजस्व पद्धति तथा अन्य आर्थिक मामलोंमें बड़े सुधार किये थे। वे भटानिया कोल ( अलीगढ़ ) से यहाँ आये थे। उन्होंने आगरामें एक जिनमन्दिर बनवाया था। वि० संवत् १६३१ में उन्होंने मथुरामें ५१४ स्तूपोंका जीर्णोद्धार कराया था। श्वेताम्बराचार्य जगद्गुरु हीरविजय सूरिको सम्राट अकबरने बड़े आग्रहके साथ निमन्त्रण देकर बुलाया था और उनका राजकीय सम्मान किया था। आचार्य महाराजसे बादशाहने जैन तत्त्वोंका वर्णन सुना था और प्रभावित होकर उसने जैन पर्यों तथा कई अन्य अवसरोंपर राज्य भरमें पशुहिंसा न करनेका आदेश प्रचारित किया था। ताजगंज, नुनिहाई और सिकन्दरामें पर्युषण पर्वके बाद भगवान्के कलशाभिषेकका उत्सव बहुत समय से होता आ रहा है। इन उत्सवोंमें हजारों जैन नर-नारी धार्मिक श्रद्धासे भाग लेते हैं और उत्सवके बाद ताजमहल, ऐतमादुद्दौला तथा सिकन्दराकी शाही इमारतोंके उद्यानोंमें सब लोग भोजन करते हैं। दुकानों, जल आदिकी व्यवस्था होती है। ये मेले अपने ढंगके निराले ही हैं। इस तरहके मेले किसी सम्प्रदायके नहीं होते। इन मेलोंके लिए जैनोंको शाही कालसे आज्ञा मिली हुई है। इस प्रदेशमें जैनोंके धार्मिक आचार-विचारका सर्व-साधारणपर अत्यधिक प्रभाव रहा है। आगराके कलैक्टर मि. नेविलने आगरा गजेटियर ( सन् १९०५ ) में लिखा है-आगरासे इटावा तकका प्रदेश-यमुना, चम्बल और क्वारी नदीके त्रिकोण में बसा हुआ क्षेत्र पूर्णतया अहिंसक है। इस क्षेत्रमें कोई शिकार तक नहीं खेलता, न मांस खाता है। इससे जैन व वैष्णव प्रभाव प्रकट होता है। अग्गलदेव की सातिशय प्रतिमा प्राकृत निर्वाणभक्ति ( अतिशयक्षेत्र-काण्ड ) में एक गाथामें कहा है-"अग्गलदेव वंदमि" अर्थात् मैं अर्गलदेवकी वन्दना करता हूँ। ये अर्गलदेव या आगलदेव कौन हैं और कहाँ विराजमान हैं ? निर्वाणभक्ति में केवल 'अग्गलदेव' ही कहा है, स्थानका नाम निर्देश नहीं किया। पश्चात्कालीन लेखकोंमें इस सम्बन्धमें मतभेद रहा है। उदयकीतिने अपभ्रंश भाषाकी 'तीर्थ-वन्दना' नामक रचनामें कहा है-'करकंडरायणिम्मियउ भेउ । हउं वंदउं आगलदेव
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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