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________________ उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ घरकी वस्तु बनारसी बेंचि बेंचि सब खांहि । लटा कुटा जो किछु हुतौ सो सब खायौ डारि ॥ जब घरमें कुछ भी नहीं बचा, तब मोतीकटराके एक कचौड़ीवालेसे हर रोज एक सेर कचौड़ियाँ उधार लेकर खाते रहे । जब १-१॥ माह इसी प्रकार करते बीत गया, तब भी कचौड़ीवालेने कभी तकाजा नहीं किया। तब बनारसीदासने उससे स्वयं ही अपनी हालत साफ शब्दोंमें बयान कर दी। तुम उधार कीनौ बहुत, आगे अब जिन देहु । मेरे पास किछू नहीं, दाम कहाँसे लेहु । किन्तु वाहरे आगरेके कचौड़ीवाले ! इतनेपर भी उसने अपनी उदारतासे मुँह नहीं मोड़ा कहै कचौड़ीवाल नर, बीस रुपैया खाहु । तुमसों कोउ न कछु कहे, जहाँ भावै तहाँ जाहु ॥ और वाहरे खरीदार ! कचौड़ीवालेकी उदारताका भरपूर उपयोग किया और छह महीने तक यों ही उधार कचौड़ियाँ खाते रहे। तब आगरेके तांबी ताराचन्दजी, जो इनके श्वसुर लगते थे, पता लगनेपर उन्हें अपने घर ले गये। फिर इन्होंने धर्मचन्द जौहरीके साझेमें दो महीने व्यापार किया। तब इन्होंने कचौड़ीवालेके १४ रुपये चुकाये। फिर दो वर्ष और व्यापार किया। कुल २०० रुपये कमाये । खर्च भी इतना ही हुआ। आय-व्यय बराबर रहे। __ इसके पश्चात् भी ये आगरा रहे, व्यापार भी किया। किन्तु कभी धनवान् न बन पाये। संवत् १६८० में खैराबाद निवासी अर्थमलजी ढोरने कविवरको टीका सहित समयसार स्वाध्यायके लिए दिया। उसे पढ़कर वे निश्चयाभासी बन गये। सं. १६९२ में पण्डित रूपचन्द पाण्डे आगरा पधारे। लोगोंके आग्रहसे आप 'गोम्मटसार' का प्रवचन करने लगे। बनारसीदासजी भी सुनने जाते थे। वहाँ कर्म प्रकृतियों और गुणस्थानोंकी चर्चा सुनकर उनकी आँखें खुल गयीं और वे व्यवहार-निश्चयके समन्वयात्मक दृष्टि-बिन्दुको ही जैनधर्म समझने लगे। वस्तुतः उनमें अध्यात्मकी लगन तभी जागी । परिणामतः सं. १६९३ में उन्होंने 'नाटक समयसार'की रचना की। - शाहगंजके मन्दिरमें अध्यात्म गोष्ठी होती थी। इस गोष्ठीकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। इसमें बड़े-बड़े विद्वान् प्रतिदिन भाग लेते थे। पं. रूपचन्द पाण्डे, पं. बनारसीदास, पं. भूधरदास, पं. भगवतीदास, कवि द्यानतराय, कवि दौलतराम आदि । बसवा निवासी दौलतराम काशलीवालने इस गोष्ठीकी बदौलत ही जैनधर्मकी ओर रुचि प्राप्त की थी। द्यानतराय भी इस गोष्ठीके कारण ही जैनधर्मकी ओर आकर्षित हुए थे। आगरामें अनेक कवि हुए हैं। इन कवियोंकी रचनाओंसे हिन्दी साहित्यका भण्डार अति समृद्ध हुआ है । इन कवियोंकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं पं. भगवतीदास-मुगति रमणी चूनड़ी, लघुसीता सतु, मनकरहा रास, जोगीरास, चतुर वनजारा, वीर जिनन्दगीत और राजमती नेमीसुर ढयाल, टंडाणारास, अनेकार्थ नाममाला, मृगांकलेखा चरित, आदित्यव्रत रास, ज्योतिषसार, वैद्यविनोद तथा अनेक रास और स्तवन । पाण्डे रूपचन्द-परमार्थी दोहाशतक, गीत परमार्थी, मंगलगीत प्रबन्ध, नेमिनाथ रासा, खटोलना गीत आदि। कविवर बनारसीदास-नाममाला, नाटक समयसार, बनारसी विलास ( इसका संग्रह आगरेके दीवान जगजीवनने किया था), अर्द्ध कथानक, मोह-विवेक-युद्ध ।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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