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उत्तरप्रदेशके दिगम्बर जैन तीर्थ यहाँपर एक उद्यान और उसमें एक प्राचीन महल बना हुआ है, जो राजा भोजका महल कहलाता है। अनुश्रुति है कि यह भोज मालवपति भोज थे और उन्होंने इस पवित्र व्रजभूमिमें अपना महल बनवाया था। यदि यह अनुश्रुति सत्य हो तो आगराका इतिहास पाँचवीं-छठवीं शताब्दी तक जा पहुंचता है।
___ अनन्तर मुसलिमकाल तक आगराका इतिहास अन्धकाराच्छन्न है। सर्वप्रथम लोदी वंशके सिकन्दर-बिन-बहलोल लोदीकी राजधानीके रूपमें आगराको हम पाते हैं। उसकी मृत्यु यहींपर सन् १५१५ में हुई थी। उसने सिकन्दरामें सन् १४९५ में अपना महल बनवाया था, जो कि बारहदरीके नामसे प्रसिद्ध है। इस स्थानका सिकन्दरा नाम भी उसीके कारण पड़ा था।
सिकन्दर लोदीके बाद उसका पुत्र इब्राहीम लोदी यहाँ रहा। मुगल सम्राट् बाबरने इब्राहीमको हराकर मई सन् १५२६ में दिल्ली और आगरापर अधिकार कर लिया। बाबरके पश्चात् हुमायूँने भी प्रायः यहीं रहकर शासन किया। उसने जितने भी अभियान किये, सब यहीं से किये। सम्भवतः बाबर और हुमायूँके महल ताजमहलके सामने यमुनाके दूसरे तटपर थे।
बादशाह अकबर सन् १५५७ के लगभग गद्दीपर बैठा और फतहपुर सीकरीमें अपने महल बनवाये । सन् १५६८ में वह फतहपुर सीकरी छोड़कर आगरामें रहने लगा। प्रारम्भमें वह ईदगाहके निकट सुल्तानपुरामें आकर रहा। उसके नौकर-चाकर खवासपुरामें रहते थे। जब लाल किला तैयार हो गया तो वह किलेमें जाकर रहने लगा और यहीं रहकर देशपर शासन किया। इसके बाद जहाँगीर और शाहजहाँने भी दिल्लीकी अपेक्षा आगरामें ही रहकर शासन-संचालन किया। शाहजहाँने संसार प्रसिद्ध ताजमहल अपनी बेगम मुमताजमहल ( उर्फ मुमताज जमान उर्फ बानूबेगम ) की स्मृतिमें यहीं बनवाया। औरंगजेबने गद्दीपर बलात् अधिकार करके शाहजहाँ बादशाहको यहीं लाल किलेमें कैद किया था। इसके बाद स्थायी तौरपर दिल्ली ही भारतकी राजधानी बन गयी और तबसे आगरेकी राजनीतिक प्रमुखता और प्रभुत्व समाप्त हो गया। जैन साहित्यमें आगरा
__मुगलकालमें आगरामें जैनोंका अच्छा प्रभाव था। उन दिनों अनेक जैन उच्च सरकारी पदोंपर थे । व्यापारिक और राजनीतिक केन्द्र होनेके कारण बाहरसे अनेक जैन यहाँ आते रहते थे और बहुत-से बाहरसे आकर स्थायी रूपसे यहीं बस गये थे। बहुत-से जैन विद्वान् भी यहाँ आते रहते थे। कुछ यहाँ भी रहते थे। स्थानीय और बाहरके जैन बन्धुओंने यहाँ अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया था। इन मन्दिरोंमें सुबह और शाम शास्त्रप्रवचन और तत्त्वगोष्ठी होती थी। इन गोष्ठियोंमें अनेक सरकारी जैन कर्मचारी और अन्य बन्धु सम्मिलित होते थे। इस जमानेमें तीन स्थानोंकी तत्त्वगोष्ठियाँ बहुत प्रसिद्ध थीं-आगरा, जयपुर और मुल्तान। बाहरके लोग अपनी शास्त्रीय शंकाएँ इन स्थानोंकी गोष्ठियोंमें समाधानके लिए भेजा करते थे या स्वयं इन गोष्ठियोंमें आकर अपनी शंकाओंका समुचित समाधान प्राप्त करते थे।
मुगलकालीन कुछ जैन कवियोंकी रचनाओंसे तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियोंपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उन रचनाओंसे उस समयके आगरामें स्थित जैन मन्दिरोंके सम्बन्धमें भी महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। पं. भगवतीदासजी बुढ़िया ( जिला अम्बाला) के लाला किशनदास अग्रवालके पुत्र और दिल्लीके भट्टारक महेन्द्रसेनके शिष्य थे। वे एक बार रामनगरके श्रावक संघके साथ यात्रार्थ यहाँ आये थे। उन्होंने यहाँ ४८ जैन मन्दिरोंके दर्शन किये थे। उनकी छोटी-बड़ी सब रचनाओंकी संख्या लगभग पचास होगी। उनमें कुछ प्रकाशित हो चुकी हैं और