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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मार्ग मथुरा दिल्ली-आगरा ( ग्राण्ड-ट्रंक ) रोडपर दिल्लीसे १४५ कि. मी. और आगरासे ५४ कि. मी. दूर है। दिल्लीसे रेल और सड़क मार्ग दोनोंसे ही यह जुड़ा हुआ है। मथुरा जंकशनसे चौरासी सिद्धक्षेत्र तीन मील है। मथुरा कैण्ट और बस स्टैण्डसे प्रायः दो मील है। यह उत्तरी रेलवे और पश्चिमी रेलवेकी बड़ी और छोटी लाइनों द्वारा दिल्ली, कानपुर, भरतपुर, आगरा, हाथरससे सम्बद्ध है। कुछ वर्ष पूर्व तक चौरासी क्षेत्र मथुरा शहरसे अलग-अलग सा पड़ा हुआ था। किन्तु जबसे इसके निकट शरणार्थी बस्तियाँ बसी हैं और दिल्ली-आगरा रोडका 'बाई-पास' चौरासीके बंगलमें होकर निकला है, तबसे चौरासी मुख्य शहरसे मिल गया है। अब वहाँ सवारी, नल, बिजली, टेलीफोन आदि सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। आगरा इतिहास - आगरा एक ऐतिहासिक नगर है। इसकी स्थापना कब, किसने की, यह अभी तक सनिश्चित नहीं हो सका है। मि. टाड आदि पूरातत्त्ववेत्ताओंके विचारमें इसका नामकरण अग्रवाल जातिके कारण पड़ा। युनानी इतिहासकार क्विण्टस कर्टिअस ( Quintus Curtius ) की मान्यता है कि प्राचीनकालमें यह नगर भारतीय नरेश अग्रभेशकी राजधानी था। सम्भवतः यह अग्निकूलका क्षत्रिय था। उसीके नामपर नगरका नाम आगरा ( आगर, आगरा) पड़ गया। तीसरी मान्यता है कि यहाँकी मिट्टी आगरयुक्त (लवणक्षारवाली) होती है, इसलिए इस नगरका नाम ही आगरा पड़ गया। एक और भी मान्यता सामने आयी है। कृष्ण-साहित्यमें चौरासी वनोंका उल्लेख आता है। उनमें एक अग्रवन भी था और यह यमुनाके तटपर फैला हुआ था। यादवोंके कालमें यह वन यादवोंके आधिपत्यमें था। मथरामें कृष्ण अपनी लीलाएँ दिखा रहे थे और शौरीपुरमें उनके चचेरे भाई नेमिनाथ । मथुरासे शौरीपूरके लिए इसी अग्रवनमें होकर मार्ग जाता था। निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता कि अग्रवनके स्थानपर अथवा उसके कुछ भागमें इसी कालमें (यादवोंके शासनकालमें ) अथवा उसके पश्चात् किसी समय नगर बस गया। उसका नाम अग्रवनपुर, अग्रपुर, या अर्गलपुर पड़ गया। वही बिगड़ते-बिगड़ते आगरा बन गया। जैन साहित्यमें संस्कृतमें 'अर्गलपुर' और प्राकृत भाषामें 'अग्गलपुर' नाम मिलता है। हिन्दीभाषी कवियोंने अर्गलपुर और आगरा, इन नामोंका व्यवहार किया है। शिलालेखों और ग्रन्थ-प्रशस्तियोंमें इसका नाम उग्रसेनपुर भी आता है। किन्तु सर्वसाधारणमें इसका नाम आगरा प्रचलित हो गया और वही नाम अब तक बराबर चल रहा है। बादशाह अकबरने इस नगरका नाम बदलकर अकबराबाद कर दिया था। पूरातत्त्ववेत्ता ए. सी. ऐल कार्लाइलको सन् १८६९ में यहाँ खुदाईमें एक स्थानपर २००० चाँदीके सिक्के मिले थे। इनके ऊपर 'गुहिल श्री' अंकित था। सम्भवतः ये सिक्के मेवाड़के गहलौतवंशके संस्थापक गुहादित्य अथवा गुहिलसे सम्बन्धित थे। यह भी सम्भावना प्रकट की गयी है कि शीशौदिया वंशके शीलादित्यके पुत्र ग्रहादित्य अथवा गुहके ये सिक्के रहे हों। कुछ भी हो, इतना तो निश्चित लगता है कि छठी-सातवीं शताब्दीमें आगरामें गुहिल या गहलौतवंशियोंका (शासन था।
SR No.090096
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1974
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size16 MB
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